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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेय भूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मक आत्मज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और ऐसा ( मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बन्ध को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त नहीं होता। इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गत्व सिद्ध नहीं होता।।३१।।
( श्री प्रवचनसार जी, गाथा-२४३ टीका) * टीका :- जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है वह ज्ञेय भूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता; और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मज्ञान से अभ्रष्ट वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा वर्तता हुआ ( वह ) मुक्त ही होता है, परन्तु बंधता नहीं है। इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है।।३२ ।।
( श्री प्रवचनसार जी, गाथा-२४४ टीका) * अन्वयार्थ :- (जीवः) जीव ( येन भावेन ) जिस भाव से (विषये आगतं) विषयागत पदार्थ को ( पश्यति जानाति) देखता है और जानता है, ( तेन एव ) उसी से ( रज्यति) उपरक्त होता है; ( पुनः और ( उसी से) (कर्म बध्यते) कर्म बँधता है; - (इति) ऐसा (उपदेशः) उपदेश है।।३३।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा–१७६ का गाथार्थ) * टीका :- यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभासस्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभास्य होने योग्य) पदार्थ समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तव में स्निग्धरूक्ष्त्वस्थानीय भावबन्ध है। और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म
* मैं जीभ से चाखता हूँ – यह मान्यता मिथ्या है*
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