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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है है कि दोनों आँखों में दो भिन्न-भिन्न पुतलियाँ हैं; किन्तु वास्तव में वह एक ही होती है। ऐसी ही दशा क्षायोपशमिक ज्ञान की है। द्रव्य-इन्द्रिय रूपी द्वार तो पाँच हैं, किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान एक समय एक इन्द्रिय द्वारा ही जाना जा सकता है; उस समय दूसरी इन्द्रियों के द्वारा कार्य नहीं होता। जब क्षायोपशमिक ज्ञान नेत्र के द्वारा वर्ण को देखने का कार्य करता है तब वह शब्द, गंध, रस या स्पर्श को नहीं जान सकता; अर्थात् जब उस ज्ञान का उपयोग नेत्र के द्वारा वर्ण के देखने में लगा होता है तब कान में कौन से शब्द पड़ते हैं या नाक में कैसी गंध आती है, इत्यादि ख्याल नहीं रहता । यद्यपि ज्ञान का उपयोग एक विषय में से दूसरे में अत्यन्त शीघ्रता से बदलता है, इसलिये स्थूल दृष्टि से देखने में ऐसा लगता है कि मानों सभी विषय एक ही साथ ज्ञात होते हों, तथापि सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर क्षायोपशमिक ज्ञान एक समय में एक ही इन्द्रिय के द्वारा प्रवर्तमान होता हुआ स्पष्टतया भासित होता है । इस प्रकार इन्द्रियाँ अपने विषयों में भी क्रमशः प्रवर्तमान होने से परोक्ष भूत इन्द्रियज्ञान हेय है ।। २८ ।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा - ५६ का भावार्थ ) * ग्राहक (ज्ञायक ) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंग-ग्रहण है; इस प्रकार आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है, इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।।२९।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा - १७२, अलिंगग्रहण बोल - १ * ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंग-ग्रहण है इस प्रकार आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, इस अर्थ की प्राप्ति होती है । । ३० ।। (श्री प्रवचनसार जी, गाथा - १७२, अलिंगग्रहण बोल - २ ) जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को * टीका : * मैं नाक से सूंघता हूँ यह मान्यता मिथ्या है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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