________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* इस प्रकार आत्मद्रव्य कहा गया। अब उसकी प्राप्ति का प्रकार कहा जाता है:
प्रथम तो, अनादि पौद्गलिक कर्म जिसका निमित्त है ऐसी मोहभावना के ( मोह के अनुभव के) प्रभाव से आत्मपरिणति सदा चक्कर खाती है, इसलिये यह आत्मा समुद्र की भाँति अपने में ही क्षुब्ध होता हुआ क्रमशः प्रर्वतमान अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों से परिवर्तन को प्राप्त होता है, इसलिये ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य पदार्थ व्यक्तियों के प्रति उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्मविवेक शिथिल हुआ होने से अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह पुनः पौद्गलिक कर्म के रचयिता-रागद्वेषद्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके आत्मप्राप्ति दूर ही है। परन्तु अब जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञानकांड को प्रचण्ड करने से अनादिपौद्गलिक-कर्मरचित मोह को वध्य-घातक के विभाग ज्ञानपूर्वक विभक्त करने से ( स्वयं) केवल आत्म भावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति निश्चल की होने से समुद्र की भाँति अपने में ही अति निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्ति व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा विवर्तन ( परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता. तब ज्ञप्ति व्यक्तियों के निमित्त रूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य पदार्थ व्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मैत्री प्रवर्तित नहीं होती और इसलिये आत्मविवेक सुप्रतिष्ठित (सुस्थित) हुआ होने से अत्यन्त अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मों के रचयितारागद्वैषद्वैतरूप परिणति से दूर हुआ पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यांतिक रूप से ही प्राप्त करता है। जगत भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो।।३८ ।। (श्री प्रवचनसार जी, कलश १९ के बाद की टीका, श्री अमृतचन्द्राचार्य)
*मैं मन से छह द्रव्य को जानता हूँ – यह मान्यता मिथ्या है*
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com