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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है खेद ही दुःख है इसलिये दुःखों को पैदा करने से इन्द्रिय ज्ञान त्यागने योग्य है।।१९।। (श्री प्रवचनसार जी, श्री जयसेनाचार्य गाथा ५५ की टीका) * अब , इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होती इसलिये इन्द्रिय ज्ञान हेय ही है, यह निश्चय करते हैं।।२०।।। (श्री प्रवचनसार जी , गाथा-५६ का शीर्षक) * टीका :- मुख्य है ऐसा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द जो पुदगल हैं वे इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने योग्य (-ज्ञात होने योग्य) है। (किन्तु ) इन्द्रियों के द्वारा वे भी युगपद ( एक साथ) ग्रहण नहीं होते (जानने में नहीं आते), क्योंकि क्षयोपशम की उस प्रकार की शक्ति नहीं है। इन्द्रियों के जो क्षयोपशम नाम की अन्तरंग ज्ञातृशक्ति है वह कौवे की आँख की पुतली की भाँति क्रमिक प्रवृत्ति वाली होने से अनेकतः प्रकाश के लिये ( एक ही साथ अनेक विषयों को जानने के लिये) असमर्थ है, इसलिये द्रव्येन्द्रिय द्वारों के विद्यमान होने पर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों का (विषयभूत पदार्थों का) ज्ञान एक ही साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है।।२१।। (श्री प्रवचनसार जी, गाथा-५६ की टीका) * टीका :- जो केवल आत्मा के प्रति ही नियत हो वह (ज्ञान) वास्तव में प्रत्यक्ष है। जो भिन्न अस्तित्व वाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई हैं, और आत्मस्वभावत्व को किंचित्मात्र स्पर्श नहीं करती ( आत्मस्वभावरूप किंचित्मात्र भी नहीं हैं) ऐसी इन्द्रियों के द्वारा वह (इन्द्रिय ज्ञान) उपलब्धि करके ( ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर) उत्पन्न होता है, इसलिये वह (इन्द्रिय ज्ञान) आत्मा के लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकता।।२२।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा-५७ की टीका) १२ * मैं पर को जानता हूँ – ऐसा मानने वाला दिगंबर जैन नहीं हैं* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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