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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जाता है (क्योंकि पर पदार्थ आत्मा के आधीन परिणमित नहीं होते) इसलिये परमार्थ से वह ज्ञान 'अज्ञान' नाम के ही योग्य है। इसलिये वह हेय है।।१८।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-५५ भावार्थ) * उत्थानिका - आगे त्यागने योग्य इन्द्रिय सुख का कारण होने से तथा अल्प विषय के जानने की शक्ति होने से इन्द्रिय-ज्ञान त्यागने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - (जीवो सयं अमुत्तो) जीव स्वयं अमूर्तिक है अर्थात् शक्ति रूप से व शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अमूर्तिक अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखमई स्वभाव को रखता है तथा अनादिकाल से कर्म बन्ध के कारण से व्यवहार में (मुत्तिगदो) मूर्तिक शरीर में प्राप्त है व मूर्तिमान शरीरों द्वारा मूर्तिक सा होकर परिणमन करता है (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीर के द्वारा अर्थात् उस मूर्तिक शरीर के आधार में उत्पन्न जो मूर्तिक द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय, उनके आधार से (जोग्गं मुत्तं) योग्य मूर्तिक वस्तु को अर्थात् स्पर्शादि इन्द्रियों से ग्रहण योग्य मूर्तिक पदार्थ को (ओगिण्हित्ता) अवग्रह आदि से क्रम-क्रम से ग्रहण करके (जाणदि) जानता है अर्थात् अपने आवरण के क्षयोपशम के योग्य कुछ भी स्थूल पदार्थ को जानता है (वा तण्ण जाणादि) तथा उस मूर्तिक पदार्थ को नहीं भी जानता है, विशेष क्षयोपशम के न होने से सूक्ष्म या दूरवर्ती, व काल से प्रच्छन्न व भूत भावी काल के बहुत से मूर्तिक पदार्थों को नहीं जानता है।
* यहाँ यह भावार्थ है कि इन्द्रिय ज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है तथापि निश्चय से केवल ज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष ही है। परोक्ष होने से जितने अंश में वह सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता है उतने अंश में जानने की इच्छा होते हुए न जान सकने से चित्त को खेद का कारण होता है,
*मैं पर जो जानता हूँ ऐसी मान्यता में भावेन्द्रिय से एकत्वबुद्धि होती है
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