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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
निर्वत्यं। केवली भगवान के प्राप्य कर्म, विकार्य कर्म और निर्वर्त्य कमै ज्ञान ही है, क्योंकि वे ज्ञान को ही ग्रहण करते है, ज्ञान रूप ही परिणमित होते हैं और ज्ञान रूप ही उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार ज्ञान ही उनका कर्म, और ज्ञप्ति ही उनकी क्रिया है। ऐसा होने से केवली भगवान के बन्ध नहीं होता, क्योंकि ज्ञप्ति क्रिया बन्ध का कारण नहीं है, किन्तु ज्ञेयार्थपरिणमन क्रिया अर्थात् ज्ञेय पदार्थों के सन्मुख वृत्ति होना (ज्ञेय पदार्थों के प्रति परिणमित होना) वह बन्ध का कारण है ।।१६।।
( श्री प्रवचनसार जी, गाथा-५२ भावार्थ) अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु। णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।।५३ ।। अस्त्यमूर्तं मूर्तमतीन्द्रियमैन्द्रियं चार्थेषु। ज्ञानं च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् ज्ञेयम्।।३।। अर्थों का ज्ञान अमूर्त, मूर्त, अतीन्द्रिय अरु इन्द्रिय है। है सुख भी ऐसा ही, वहाँ प्रधान जो वह ग्राह्य है।।५३।।
टीका :- यहाँ; (ज्ञान तथा सुख दो प्रकार का है-) एक ज्ञान तथा सुख मूर्त और इन्द्रियज है; और दूसरा (ज्ञान तथा सुख) अमूर्त और अतीन्द्रिय है। उसमें जो अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होने से उपादेय रूप जानना।।१७।।
(श्री प्रवचनसार जी , गाथा-५३ टीका में से, पूरी टीका देखो) * भावार्थ : इन्द्रियज्ञान इन्द्रियों के निमित्त से मूर्त स्थूल इन्द्रिय गोचर पदार्थों का ही क्षायोपशमिक ज्ञान के अनुसार जान सकता है। परोक्ष भूत इन्द्रिय ज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश, आदि बाह्य सामग्री को ढूँढने की व्यग्रता के कारण अतिशय चंचल-क्षुब्ध है। अल्पशक्तिवान होने से खेद खिन्न है, परपदार्थों को परिणमित कराने का अभिप्राय होने पर भी पद पद पर ठगा
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* पर ज्ञेय को ज्ञेय मानना ज्ञेय की भूल है
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