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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* जो इन्द्रिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ।।३१।। कर इन्द्रिय जय ज्ञान स्वभाव रु अधिक जाने आत्म को। निश्चयविर्षे स्थित साधुजन, भार्षे जितेन्द्रिय उन्हीं को।।३१।।
गाथार्थ : जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते है उन्हें, जो निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे, वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं। ___टीका : ( जो मुनि द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को – तीनों को अपने से अलग करके समस्त अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे मुनि निश्चय से जितेन्द्रिय हैं) अनादि अर्मयादरूप बंध पर्याय के वश जिसमें समस्त स्व-पर का विभाग अस्त हो गया है (अर्थात् जो आत्मा के साथ ऐसी एकमेक हो रही है कि भेद दिखाई नहीं देता।) ऐसी शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों को तो निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रकट अति सूक्ष्म चैतन्य स्वभाव के अवलम्बन के बल से सर्वथा अपने से अलग किया; सो द्रव्येन्द्रियों को जीतना हुआ। भिन्न-भिन्न अपनेअपने विषयों में व्यापार भाव से जो विषयों को खण्ड-खण्ड ग्रहण करती हैं (ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप बतलाती हैं) ऐसी भावेन्द्रियों के, प्रतीति में आती हुई अखण्ड एक चैतन्य शक्ति द्वारा सर्वथा अपने से भिन्न जाना; सो यह भावेन्द्रियों का जीतना हुआ। ग्राह्यग्राहक लक्षण वाले सम्बन्ध की निकटता के कारण जो अपने संवेदन (अनुभव) के साथ परस्पर एक जैसी हुई दिखाई देती हैं ऐसी , भावन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को, अपनी चैतन्य शक्ति की स्वयमेव अनुभव में आनेवाली असंगता के द्वारा सर्वथा अपने से अलग किया; सो यह इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का जीतना
* इन्द्रियज्ञान संसार का मूल है*
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