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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
मंगलाचरण
* नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।१।। * जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होने वाले कोलाहल से विमुक्त है, जो नय और अनय के समूह से दूर होने पर भी योगियों को गोचर है, जो सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परमदूर है, ऐसा यह अनघ-चैतन्यमय सहजतत्व अत्यन्त जयवन्त है ।।२।।
(श्री नियमसार जी, श्री पह्मप्रभमलधारी देव कलश-१५६) * जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियों का समूह है, जिसने सदा विशदविशद ( अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में पापकलंक को धो डाला है तथा जिसने इन्द्रिय समूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा अन्धकार दशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है।।३।।
__ (श्री नियमसार जी, श्री पह्मप्रभमलधारी देव कलश–१६३) * यमियों को ( संयमियों को) आत्मज्ञान से क्रमशः आत्मलब्धि (आत्मा की प्राप्ति) होती है - कि जिस आत्मलब्धि ने ज्ञानज्योति द्वारा इन्द्रिय समूह के घोर अन्धकार का नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्मवन से उत्पन्न (भवरूपी) दावानल की शिखाजाल का (शिखाओं के समूह का) नाश करने के लिए उस पर सतत शमजलमयी धारा को तेजी से छोड़ती है – बरसाती है ।।४।।
(श्री नियमसार जी, श्री पद्मप्रभमलधारी देव कलश-१८६)
*इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है, ज्ञेय है*
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