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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
हुआ। इस प्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को (तीनों को) जीतकर ज्ञेयज्ञायक संकर नामक दोष आता था सो सब दूर होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभाव के द्वारा सर्व अन्य द्रव्यों से परमार्थ से भिन्न ऐसे अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितेन्द्रिय जिन है (ज्ञान स्वभाव अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है इसलिये उसके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है।) कैसा है वह ज्ञान स्वभाव ? विश्व के ( समस्त पदार्थों के ) ऊपर तैरता हुआ ( उन्हें जातना हुआ भी उन रूप न होता हुआ) प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध और परमार्थरूप - ऐसा भगवान ज्ञान स्वभाव है। इस प्रकार एक निश्चय स्तुति तो यह हुई।
(ज्ञेय तो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का और ज्ञायकस्वरूप स्वयं आत्मा का – दोनों का अनुभव , विषयों की आसक्ति से, एक सा होता था; जब भेदज्ञान से भिन्नत्व ज्ञात किया तब वह ज्ञेय ज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहां जानना )।।५।।
(श्री समयसार जी, गाथा-३१)
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*इन्द्रियज्ञान मूर्तिक है
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