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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
द्रव्य दृष्टि जहाँ चोंटी वहाँ से पीछे फिरती नहीं। अन्दर में पूर्णता लेवे ही लेवे। जैसे भगवान के दर्शन होने पर नेत्र वहीं रुक जाते हैं वैसे ही ज्ञायकदेव के दर्शन होने पर अन्दर के नेत्र-दृष्टि वहीं चोंट जाती है। दृष्टि जमने पर ज्ञान भी वहाँ कथंचित् जम जाता है, बाद में उपयोग अन्दर और बाहर ऐसे करते-करते अन्दर में पूर्ण जमने पर केवलज्ञान प्रगट होता है। अहो! ज्ञायकदेव की और जिनेन्द्रदेव की अपार महिमा है।।५४२।।
(श्री गुजराती आत्मधर्म, फरवरी १९९१, पृष्ठ १९, पू. बहन श्री) * प्रश्न : अस्तित्व का ग्रहण अर्थात् क्या ?
उत्तर : अज्ञानी को अनुभव से पहले अपने अस्तित्व का ख्याल आना चाहिए। “यह जानने में आता है वह जानने में आता है इसलिए मैं जाननहार" ऐसा नहीं परन्तु “यह रहा मैं जाननहार ज्ञायक" ऐसे अपने अस्तित्व का सीधा ख्याल आवे, अभेद एक आत्मा का भावभासन होवे। ऐसे अस्तित्व के ग्रहण के बाद ही सच्चा पुरुषार्थ शुरू होता है।।५४३ ।।
(श्री अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ ३१४)
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* इन्द्रियज्ञान वैभाविक है
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