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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
प्रमाण-नय-निक्षेपादि से वस्तु की तर्कणा करे, धारणारूप ज्ञान को विचारों में विशेष-विशेष फेरे, किन्तु यदि ज्ञानस्वरूप आत्मा के अस्तित्व को न पकड़े और तद्रूप परिणमित न हो, तो वह ज्ञेयनिमग्न रहता है, जो-जो बाहर का जाने उसमें तल्लीन हो जाता है, मानों ज्ञान बाहर से आता हो-ऐसा भाव वेदता रहता है। सब पढ़ गया, अनेक युक्ति-न्याय जाने, अनेक विचार किये, परन्तु जाननेवाले को नहीं जाना, ज्ञान की असली भूमि दृष्टिगोचर नहीं हुई, तो वह सब जानने का फल क्या ? शास्त्राभ्यासादि का प्रयोजन तो ज्ञानस्वरूप आत्मा को जानना है।।५४०।।।
(पू. बहनश्री के वचनामृत, पृष्ठ १६३ , बोल ३८१) * ज्ञायक स्वभाव आत्मा का निर्णय करके, मति-श्रुतज्ञान का उपयोग जो बाह्य में जाता है उसे अन्तर में समेट लेना, बाहर जाते हुये उपयोग को ज्ञायक के अवलम्बन द्वारा बारम्बार अन्तर में स्थिर करते रहना, वहीं शिवपुरी पहुँचने का राजमार्ग है। ज्ञायक आत्मा की अनुभूति वही शिवपुरी की सड़क हैं, वह मोक्ष का मार्ग है। दूसरे सब उस मार्ग का वर्णन करने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। जितने वर्णन के प्रकार हैं, उतने मार्ग नहीं है; मार्ग तो एक ही है।।५४१।।
(पू. बहनश्री के वचनामृत , पृष्ठ १६४, बोल ३८३) * जिनेन्द्र भक्ति तो क्या, परन्तु कोई भी कार्य करते हुए साधक की दृष्टि ज्ञायकदेव पर ही पड़ी होती है। दृष्टि ज्ञायकदेव में जमी सो जमी! वहाँ से पीछे हटती ही नहीं! बाहर के नेत्र भले जिनेन्द्र पर एकाग्र हों परन्तु अन्दर के नेत्र तो उस समय भी निज ज्ञायकदेव पर से हटते नहीं। ज्ञायकदेव के दर्शन होने पर अनन्त गुणों में आंशिक शुद्धि की पर्याय प्रगट हुई! जब पूर्णता लिये बिना अन्दर के नैन वहाँ से पीछे हटते ही नहीं,
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*पर को जानते हुए ज्ञान भी नहीं है, सुख भी नहीं है।
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