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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
पू. बहन श्री के वचनामृत
* यह सर्वत्र-बाहर-स्थूल उपयोग हो रहा है, उसे सब जगह से उठाकर, अत्यन्त धीर होकर, द्रव्य को पकड़। वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, द्रव्येन्द्रिय भी नहीं और भावेन्द्रिय भी द्रव्य का स्वरूप नहीं है। यद्यपि भावेन्द्रिय है तो जीव की ही पर्याय, परन्तु वह खण्ड-खण्ड रूप है, क्षायोपशमिक ज्ञान है और द्रव्य तो अखण्ड एवं पूर्ण है, इसलिये भावेन्द्रिय के लक्ष से भी वह पकड़ में नहीं आता। इन सबसे उस पार द्रव्य है। उसे सूक्ष्म उपयोग करके पकड़।।५३७ ।।
( पू. बहनश्री के वचनामृत, पृष्ठ ७९, बोल २०३ ) * आत्मा जानने वाला है, सदा जागृतस्वरूप ही है। जागृतस्वरूप ऐसे आत्मा को पहिचाने तो पर्याय में भी जागृति प्रगट हो। आत्मा जागती ज्योति है, उसे जान।।५३८ ।।
__(पू. बहनश्री के वचनामृत, पृष्ठ १०३, बोल २६५) * चैतन्य मेरा देव है; उसी को मैं देखता हूँ। दूसरा कुछ मुझे दिखता ही नहीं है ने!-ऐसा द्रव्य पर जोर आये, द्रव्य की अधिकता रहे, तो सब निर्मल होता जाता है। स्वयं अपने में गया, एकत्वबुद्धि टूट गई, वहाँ सब रस ढीले हो गये। स्वरूप का रस प्रगट होने पर अन्य रस में अनन्त फीकापन आ गया। न्यारा, सबसे न्यारा हो जाने से संसार का रस घटकर अनन्तवां भाग रह गया। सारी दशा पलट गई।।५३९ ।।
(पू. बहनश्री के वचनामृत, पृष्ठ १७४, बोल ३९७)
* जीव भले ही चाहे जितना शास्त्र पढ़ ले, वाद-विवाद करना जाने,
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* इन्द्रियज्ञान वास्तव में ज्ञेय भी नहीं है ।
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