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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
श्रीमद् राजचन्द्रजी के वचनामृत
* “अनन्तकाल से जो ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) भव हेतु होता था उस ज्ञान को एक समय मात्र में जात्यांतर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप किया उस कल्याणमूर्ति सम्यकदर्शन को नमस्कार”।।५३१ ।।
( श्रीमद् राजचन्द्र पत्र नं ८३९, पृष्ठ ६२५ ) * जीवकी उत्पत्ति अरु रोग, शोक, दुख, मृत्यु,
देह का स्वभाव जीवपद में जनाय है; ऐसा जो अनादि एकरूपका मिथ्यात्वभाव , ज्ञानी के वचन द्वारा दूर हो जाय है।।४८।। ।।५३२ ।।
('जड़ और चैतन्य दोनों द्रव्य का स्वभाव भिन्न' में से) * ज्ञान ने आत्मा को लक्ष करके जाना है, उसकी वर्ते है शुद्ध प्रतीति, मूल मारग सुनो रे जिनदेव का................. ।।५३३ ।।
('मूल मारग सुनो रे.... में से' पंक्ति ७) * जब जान्यो निजरूप को, तब जान्यो सब लोक,
नहीं जान्यो निजरूप को, सब जान्यो सो फोक।।५३४ ।। * घट, पट आदि जान तूं, इससे उसको मान , जाननहार को माने नहीं, कहिए कैसा ज्ञान ? ।।५३५ ।।
(श्री आत्मसिद्धी शास्त्र, गाथा नं. ५५)
* केवल निजस्वभाव का अखण्ड वर्ते ज्ञान, कहते केवलज्ञान उसे , देह छतां निर्वाण ।।५३६ ।।
( श्री आत्मसिद्धी शास्त्र, गाथा नं. ११३ ) २५२
* इन्द्रियज्ञान पौदगलिक है*
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