SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है लोकालोक और ज्ञान एकमेक हो जायें तो दोनों जुदा नहीं रहेंगे।।५२८ ।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३४ ) * वास्तव में इस जगत को जीव ने नहीं जाना है। यदि जगत को वास्तव में जाने तो जगत और जीव एक हो जावे । तेरा ज्ञान वास्तव में मानस्तम्भ को जाने तो तेरा ज्ञान उसमें चला जाय तो तू और मानस्तम्भ एकरूप हो जाये। वास्तव में तू अपनी ज्ञानपर्याय को जानता है । मानस्तम्भ आदि पर को वास्तव में ज्ञान जानता ही नहीं है ।। ५२९ ।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३८ ) * ज्ञान कला में अखण्ड का प्रतिभास : ज्ञान की वर्तमान पर्याय का सामर्थ्य स्व को जानने का है। आबाल-गोपाल सभी को सदाकाल अखण्ड प्रतिभासमय त्रिकाली स्व जानने में आता है, लेकिन उसकी दृष्टि पर में पड़ी होने से वहाँ एकत्व करता हुआ — जाननहार ही जानने में आता है' ( जाणनार ज जणाय छे) वैसा नहीं मानता हुआ, रागादि पर जानने में आता है - इस प्रकार अज्ञानी पर के साथ एकत्वपूर्वक जानता - मानता होने से उसकी वर्तमान अवस्था में अखण्ड का प्रतिभास ( ज्ञान ) नहीं होता । और ज्ञानी तो — यह जाननहार जानने में आता है वही मैं हूँ' ऐसे जाननहार ज्ञायक को जानता-मानता होने से उसकी वर्तमान अवस्था में ( ज्ञानकला में ) अखण्ड का सम्यक् प्रतिभास होता है । । ५३० ।। (श्री आत्मधर्म गुजराती, अंक ८ [ ३९२ ] वीज संवत् २५०२ जेठ ) २५९ 'इन्द्रियज्ञान संसार का मूल है * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy