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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मार्थी भाई श्री निहालचंद्र भाई सोगानी जी के
वचनामृत द्रव्य दृष्टि प्रकाश, भाग ३ में से
* प्रश्न : राग को ज्ञान का ज्ञेय तो बनाना न?
उत्तर : राग को ज्ञान का ज्ञेय “ बनाने जाते हैं" यह दृष्टि ही गलत है। खुद को ज्ञेय बनाया तो राग उसमें (जुदा) ( भिन्न) जानने में आता है। राग को ज्ञेय क्या बनाना है ? ।।५४४।।।
(श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, बोल ३२६ , पृष्ठ ६९) * राग को ज्ञान का ज्ञेय, ज्ञान का ज्ञेय कहते हैं और लक्ष राग की ओर है तो वह सच्चा ज्ञान का ज्ञेय है ही नहीं। ज्ञान का ज्ञेय तो अन्दर में सहजरूप हो जाता है। लक्ष बाहर पड़ा है और ज्ञान ज्ञेय हैऐसा बोले तो मुझे तो खटकता है। ऐसे 'योग्यता', 'क्रमबद्ध' आदि सब में लक्ष बाहर पड़ा हो और कहवे वो तो मुझे खटकता है।।५४५।।
(श्री द्रव्यदृष्टिप्रकाश, बोल ५७९, पृष्ठ १११)
* निमित्तों से तो किंचित मात्र लाभ नहीं है, लेकिन उघाड़ ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) से भी कुछ लाभ नहीं है। उघाड़ ज्ञान में (इन्द्रियज्ञान में) तुझे हर्ष आता है तो त्रिकाल स्वभाव की तुझे महत्ता नहीं आई है।।५४६।।
( श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, बोल ३५९, पृष्ठ ७४–७५) * सुन सुन करके मिल जायेगा ओ दृष्टि झूठी है। (कार्यसिद्धि) अपने (अन्तर पुरुषार्थ) से ही होगा। सुनना , सुनाना, पढ़ना, ये सब
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* मैं पर को जानता हूँ-ऐसा मानना वह श्रद्धा का दोष है*
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