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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* प्रश्न : स्व-परप्रकाशक स्वभाव में दो-पना आता है या एकपना ?
उत्तर : शक्ति एक है, एक पर्याय में अखण्डपना है, दो-पना नहीं है। स्व-परप्रकाशक का सामर्थ्यपना एक है। भेद करके दो-पना कहा जाता है।।५१७।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ २४०, बोल ८७० )
* अनादि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के कारण इन्द्रियों से ही जानता हूँ-ऐसा अज्ञानी मानता है। इसलिए इन्द्रियों की प्रीति नहीं छूटती है। मेरा स्वभाव अनादि अनन्त ज्ञान स्वभाव हैं - उसकी दृष्टि नहीं होने के कारण मैं इन्द्रियों के द्वारा जानता हूँ, मेरा ज्ञान मेरे से होता है-ऐसा नहीं जानता, (नहीं मानता ) । इन्द्रियों के द्वारा जानता हूँ ऐसा मानकर इन्द्रियों की प्रीति करता है । स्वभाव की प्रीति नहीं करता। इन्द्रिय, मन मेरे अंग है-यहीं मैं हूँ - ऐसा मानकर अज्ञानी जीव इन्द्रियों की रुचि नहीं छोड़ता और अतीन्द्रिय स्वभाव की रूचि नहीं
करता।।५१८।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, अधिकार तीसरा, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन - प्रसाद नं. ३२ में से, पृष्ठ २२८ ) * ज्ञान की स्व- परप्रकाशक पर्याय नृत्य के समीप नहीं जाती है। नृत्य के सामने देखती नहीं है। नृत्य के सामने देखने का अर्थ क्या है ? पर तो पर में परिणमता है। अपने ज्ञान में प्रवर्त्तती हुई पर्याय अपने को जानती है-ऐसा नहीं मानकर मैं पर को देखता हूँ ( जानता हूँ ) - ऐसी मान्यता मिथ्या है। (मिथ्यात्व है ) अज्ञानी कहता है कि मैंने स्त्री, आँख, हाथ, चेष्टा वगैरहा को देखा परन्तु वास्तव में वह ज्ञान की - स्व-परप्रकाशक पर्याय ही खिली है (ज्ञात हुई है) वह भी परपदार्थ हैं इसलिए नहीं, पर के कारण नहीं, पर के सामने देखा इसलिए नहीं । मेरी
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* ज्ञानी ऐसा मानता है कि मैं मन से छह द्रव्य को नहीं जानता हूँ* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com