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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञानपर्याय मेरे से प्रकट होती है - ऐसा मानना चाहिए । । ५१९ ।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, अधिकार तीसरा, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२ में से, पृष्ठ २२९ )
वह ज्ञान रूप को नहीं जानता है। जड़ पदार्थ ज्ञान में नहीं आते है, ज्ञान अजीव की पर्याय में नहीं जाता है, अरूपी ज्ञान रूपी पर्याय को स्पर्शता नहीं है। यह रूपी नृत्य तो पर में है। उस पर्याय सम्बन्धी का और स्वपर्याय सम्बन्धी का ज्ञान पर की अर्थात् नृत्य पर्याय की नास्तिपने प्रवर्त्तता हुआ स्व के सद्भाव रूप से और पर के अभावरूप से परिणमता है। फिर भी पर के कारण परिणमता हैऐसा मानना वह अपनी प्राणहिंसा है। अपनी वर्तमान (ज्ञान) पर्याय स्वभाव रूप परिणमती हुई नृत्य को स्पर्शती नहीं है, नृत्य के सामने देखती ( भी ) नहीं है। भगवान ! तेरा ज्ञानस्वभाव तेरी सत्ता में, तेरे अस्तित्व में प्रवर्त्तित हुआ है, तेरे अस्तित्व को छोड़कर ( आत्मा को जानना छोड़कर) दूर नहीं गया है। तेरा ज्ञानस्वभाव नृत्य के अभावपने वर्त्तता हुआ अपने सद्भावरूप परिणमता है। रूपी पर्याय यहाँ आत्मा मे आवे तो आत्मा रूपी हो जावे, आत्मा का ज्ञान अरूपी है। अपने अस्तित्व में अपने सामर्थ्य से जानता है। इस - वस्तुस्थिती की अज्ञानी को खबर नहीं है। अपने में रहकर अपना ज्ञान होता हैवैसा नहीं मानकर 'मैंने यह नृत्य देखा' ऐसा मानता है-ऐसी विपरीत, मिथ्या–मान्यता में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह ये पाँचों पाप आ जाते हैं ! मैं अनादि अनन्त ज्ञानवान हूँ इसमें से प्रवर्त्तती ज्ञानपर्याय के सामर्थ्य को जो नहीं मानता है और पर को मैं जानता हूँ ऐसा मानता है - वह अपने अस्तित्व का नाश करता है। वह जीव नृत्य को वास्तव में नहीं जानता है, यदि वास्तव में नृत्य को
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* भेदों का पार नहीं है और अभेद का विस्तार नहीं है*
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