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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
शास्त्र का नहीं है। यह ज्ञान तो लक्ष्य ऐसे आत्मा का लक्षण हैं; ज्ञान है वहाँ उसके साथ अनन्त गुण हैं। ज्ञान जिसका लक्षण है ऐसे नक्की करने पर अनन्त गुण वाला आत्मा नक्की हो जाता है, ये ही साध्य है । । ५१३ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १७६, बोल ६४१ )
* ज्ञानद्वार में स्वरूप शक्ति को जानना । लक्षण ज्ञान और लक्ष्य आत्मा अपने ज्ञान में भासता है तब सहज आनन्दधारा बहती है वह अनुभव है।।५१४।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १९४, बोल ७१० )
* छद्मस्थ का उपयोग एक तरफ होता है। उपयोग पुण्य-पाप की ओर है तब स्व–अनुभव में नहीं है। स्वानुभूति ज्ञान की पर्याय है। सम्यग्दर्शन को उपयोगरूप स्वानुभूति के साथ विषम व्याप्ति है। सम्यग्दर्शन होने पर भी ज्ञान स्व में उपयोगरूप होवे अथवा ना होवे। इसलिए सम्यग्दर्शन और स्वज्ञान के व्यापार में विषम व्याप्ति है। स्वज्ञान लब्ध रूप तो होता है परन्तु सदा उपयोगरूप नहीं होता है । । ५९५ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १९५, बोल ७१४ ) * प्रश्न : निर्विकल्प दशा के काल में स्व-परप्रकाशक स्वभाव को कोई बाधा आती है ?
उत्तर : निर्विकल्पता के काल में ज्ञान ज्ञान को जानता है और आनन्द को भी जानता है इसलिए वहाँ भी स्व- परप्रकाशकपना है। आनन्द को जानना वह ज्ञान की अपेक्षा से पर है। निर्विकल्प दशा में स्वज्ञेय एक ही आया ऐसा नहीं है। ज्ञान के साथ आनन्द का ख्याल आता है। स्वयं ज्ञान को जानता है वह स्व और आनन्द को पर तरीके जानता है। इस प्रकार स्व-परप्रकाशक स्वभाव वहाँ भी रहता है ।। ५१६ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १९६, बोल ७१५ )
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* ज्ञानी ऐसा मानता है कि- मैं स्पर्शइन्द्रिय से स्पर्श नहीं करता हूँ * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com