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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* जैसे भक्ति आदि बंध का कारण है वैसे ही शास्त्रज्ञान भी पुण्यबंध का कारण है। लेकिन उसमें से निकलकर ज्ञायक का अनुभव करना वह मोक्ष का कारण है। शास्त्र क्या कहते हैं ? आचारांगादि में क्या कहा है ?- कि आत्मा का अनुभव करो। पर से , राग से भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमयी आत्मा का ज्ञान करना वह शास्त्र पढ़ने का गुण है किन्तु अभवी को उसका अभाव होने से वह अज्ञानी है, आत्मा शुद्ध ज्ञानमयी है कि जो शास्त्रज्ञान के विकल्प से भी रहित है। ऐसे आत्मा का जिसको ज्ञान नहीं है उसने शास्त्र पढ़े तो भी क्या ? ।।४८० ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ४५, बोल १५०) * प्रश्न : सम्यग्दृष्टि का उपयोग पर में हो तब स्व प्रकाशक है ?
उत्तर : सम्यग्दृष्टि का उपयोग पर में हो तब भी (ज्ञान) स्वप्रकाशक है परन्तु उपयोगरूप परप्रकाशक के समय उपयोगरूप स्वप्रकाशक नहीं होता है और जब उपयोगरूप स्वप्रकाशक होता है तब उपयोगरूप परप्रकाशक नहीं होता, तो भी ज्ञान का स्वभाव तो स्वप्रकाशक ही है।।४८१।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ४७, बोल १५८)
* प्रश्न : ज्ञान विभावरूप परिणमता है ?
उत्तर : ज्ञान में विभावरूप परिणमन नहीं है। ज्ञान स्व-परप्रकाशक स्वभावी है तो भी जो ज्ञान स्व को नहीं प्रकाशे और अकेले पर को प्रकाशे वह ज्ञान का दोष है।।४८२।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ५४, बोल १८४)
* प्रश्न : मिथ्या श्रद्धा के कारण ज्ञान विपरीत कहा जाता है ?
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* मैं मन से छह द्रव्य को जानता हूँ-यह मान्यता मिथ्या है*
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