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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* ज्ञान की दशा में अनुभूतिस्वरूप भगवान जानने में आता है फिर भी तू उसे क्यों नहीं जानता? अरे रे !! ज्ञान की दशा में भगवान ज्ञात होने पर भी अनादि से विकल्प के वश होकर रहने से भगवान जानने में नहीं आता। ज्ञानरूपी दर्पण की स्वच्छता में भगवान आत्मा ज्ञात होने पर भी अपने को खबर क्यों नहीं पड़ती ? कि राग के विकल्प के वशीभूत होने से उसकी नजर में राग आता है। इसलिए भगवान जानने में आने पर भी जानने में नहीं आता । अज्ञानी अनादि से दया- दान आदि विकल्प के वशीभूत हो जाने से ज्ञान की वर्तमान दशा में अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा जानने में आ रहा है तो भी उसको जानने में नहीं आता।।४७७।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ४०, बोल १३१ )
* जो कुछ शास्त्र का ज्ञान होता है उसमें शब्द निमित्त हैं इसलिए उस ज्ञान को शब्द श्रुतज्ञान कहते हैं परन्तु वह आत्मज्ञान नहीं है। वास्तव में तो शब्दश्रुतज्ञान में ज्ञान का जो परिणमन है वह आत्मा का परिणमन ही नहीं है, क्योंकि जैसे पुद्गल की ठंडी - गरम आदि अवस्था ज्ञान कराने में निमित्त है तो भी शीत - उष्णपने परिणमना वह ज्ञान का कार्य नहीं है, वह तो पुद्गल का कार्य है, उसी प्रकार नौ तत्व की श्रद्धा, शास्त्र का ज्ञान और व्यवहार चारित्र यह तीनों राग हैं ने, आत्मा का रागपने परिणमना अशक्य है ।।४७८ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ४३, बोल १४१ )
* जिस ज्ञान में शब्दश्रुत आधार है किन्तु आत्मा आधार नहीं है, वह शब्दश्रुतज्ञान है, उससे आत्मज्ञान नहीं होता है । शब्दश्रुत को जानने का जितना विकल्प है, वह ज्ञान परलक्षी है। वीतराग के शास्त्रों का ज्ञान है वह परलक्षी ज्ञान होने से परलक्षी ज्ञान का निषेध किया है ।।४७९ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ४३, बोल १४२ )
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* मैं स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श करता हूँ- यह मान्यता मिथ्या हैं *
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