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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
सुनकर भी कह नहीं सकते। फिर भी इस ज्ञान को स्थूल ज्ञान कहा है। जो ज्ञान राग को भिन्न करके, पर्याय को भगवान बनाता है उस ज्ञान को भगवती प्रज्ञा कहते हैं। सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इस भगवती प्रज्ञा के द्वारा भव का अंत आता है।।४७४ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ३३, बोल १०४) * सम्यग्दर्शन में क्षयोपशम ज्ञान है वह कैसा है कि निर्विकारस्वसंवेदन लक्षणवाला है, ऐसा कहकर इसमें कहते हैं कि शास्त्र ज्ञान है वो कार्य नहीं करेगा परन्तु निर्विकारी स्वसंवेदन ज्ञान है वह कार्य करता है। उसको यहाँ क्षयोपशम ज्ञान कहा है। सम्यग्दर्शन होने पर जो ज्ञान है वह क्षयोपशम ज्ञान है, भले क्षायिक सम्यग्दर्शन हो तो भी ज्ञान तो क्षयोपशम ज्ञान है।।४७५।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ३६ , बोल ११९)
* निश्चय मोक्षमार्ग है वह निर्विकल्प समाधि है। उससे उत्पन्न हुआ अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव जिसका लक्षण है ऐसा स्वसंवेदन ज्ञान वह ज्ञान है। शास्त्र ज्ञान वह ज्ञान नहीं है। परन्तु निर्विकल्प-स्वसंवेदन लक्षण वह ज्ञान है। सुखानुभूति मात्र लक्षण स्वसंवेदन ज्ञान से आत्मा जानने में आवे ऐसा है। इसके बिना ज्ञात हो ऐसा नहीं हैं। निर्विकारी स्वसंवेदन ज्ञान से जानने में आवे ऐसा है, परन्तु भगवान की वाणी से जानने में आवे ऐसा नहीं है। भगवान की भक्ति से जानने में आवे ऐसा नहीं है। आनन्द की अनुभूति के स्वसंवेदन ज्ञान से ज्ञात होऊँ ऐसा में हूँ। और सर्व आत्मायें भी उनके स्वसंवेदन ज्ञान से उनको जानने में आवें ऐसे हैं।।४७६।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ३६ , बोल १२०)
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* मैं जीभ से चाखता हूँ-यह मान्यता मिथ्या है
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