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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
उत्तर : मिथ्या श्रद्धा के कारण ज्ञान को विपरीत कहना यह तो निमित्त से कथन हुआ। ज्ञान स्वप्रकाशक होने पर भी स्व को नहीं प्रकाशता वह ज्ञान का अपना दोष है।।४८३ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ५४–५५, बोल १८५) * कागज पर ( बना हुआ) दीपक घास को नहीं जलाता वैसे ही अकेले शास्त्र के ज्ञान से संसार नहीं जलता।।४८४ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ५८, बोल २०५ ) * भगवान आत्मा ज्ञायक स्वरूप से विराजमान है उसको अतीन्द्रिय ज्ञान से जानना होता है परन्तु उसको इन्द्रियों द्वारा जानना नहीं होता है। इन्द्रियों द्वारा जानने का कार्य उसको नहीं होता है। उसको अर्थात् कि ज्ञायक आत्मा को लिंगो द्वारा अर्थात् पाँच इन्द्रियों द्वारा जानना नहीं होता। इन्द्रियों द्वारा जानने का कार्य करे वह आत्मा नहीं है, इन्द्रियाँ अनात्मा हैं, इसलिए उनके द्वारा जानने का कार्य करे वह ज्ञान ही अनात्मा है। शास्त्र सुने और उसके द्वारा जो ज्ञान हो, उस ज्ञान को आत्मा नहीं कहते। शास्त्र सुनने पर जो ख्याल में आये कि ऐसा कह रहे हैं-ऐसा जो जानपना हुआ वह इन्द्रियों द्वारा हुआ होने से उसको आत्मा नहीं कहते।।४८५ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ६७, बोल २५५ ) * अतीन्द्रिय ज्ञानमयी आत्मा है, इन्द्रियज्ञानमयी नहीं है। इन्द्रियों से शास्त्र वाँचे, सुने , वह ज्ञान , अतीन्द्रियज्ञान नहीं है, वह आत्मज्ञान नहीं है, वह तो खण्ड-खण्ड ज्ञान है। ११ अंग और नव पूर्व का ज्ञान परसत्तावलंबी ज्ञान है। वह बंध का कारण है। यहाँ परमात्मा ऐसा फरमाते हैं कि प्रभु! एक बार तो सुन, आत्मा को अतीन्द्रिय ज्ञान से जानना होता है, इन्द्रियज्ञान से जानना हो वह आत्मा नहीं है।।४८६ ।।
( श्री परमागमसार, पृष्ठ ६७, बोल २५६ )
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* मैं ज्ञायक ही हूँ और मुझे ज्ञायक ही जानने में आ रहा है*
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