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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* सर्व सिद्धांत का सार में सार तो बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुख होना ये है। श्रीमद्जी ने कहा है ना-“ उपजे मोह विकल्प से समस्त यह संसार, अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहीं वार।” ज्ञानी के एक वचन में अनंती गम्भीरता भरी है। अहो! भाग्यशाली होगा उसे इस तत्व का रस आयेगा और तत्व के संस्कार गहरे उतरेंगे।।४६९ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १५, बोल ४२)
* प्रश्न : पढ़ने, सुनने और मनन करने पर भी आत्मा का अनुभव क्यों नहीं होता?
उत्तर : पढ़ना आदि तो सर्व बहिर्मुख है ना, आत्मवस्तु पूरी अंतर्मुख है। इसलिये इसको अंतर्मुख होना चाहिए। पर को जानने वाला उपयोग स्थूल है उसको सूक्ष्म करके अंतर्मुख करने का है। अन्दर गहराई में जाय तो अनुभव हो। ज्ञायक.... ज्ञायक.... ज्ञायक हूँ। ध्रुव हूँ। ऐसा अन्दर में संस्कार डाले तो आत्मा का लक्ष होकर अनुभव होवे ही।।४७०।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ २०, बोल ६६)
* श्रुत की जो वाणी है वह अचेतन है, उसमें ज्ञान नहीं आता। इसलिये भगवान आत्मा और द्रव्य श्रुत भिन्न हैं, अर्थात् कि द्रव्य श्रुत से आत्मा को ज्ञान नहीं होता है। द्रव्य श्रुत का ज्ञान भी वास्तव में अचेतन है, क्योंकि वह परलक्षी ज्ञान है, स्वलक्षी ज्ञान नहीं है। द्रव्य श्रुत जड़ वाणी वो आत्मा नहीं है और उसको सुनने से जो ज्ञान होता है वह परलक्षी ज्ञान होने से वह ज्ञान नहीं है। स्वभाव को स्पर्श करके होने वाला ज्ञान वह ज्ञान है। द्रव्य श्रुत तो जड़ है। परन्तु उसके निमित्त से जो ज्ञान होता है वह परसत्तावलंबी ज्ञान होने से वह ज्ञान नहीं है। द्रव्य श्रुत के ज्ञान से आत्मा भिन्न है।।४७१।।
( श्री परमागमसार, पृष्ठ २४ , बोल ७४)
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* मैं कान से सुनता हूँ - यह मान्यता मिथ्या है*
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