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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञान को ज्ञान ही नहीं कहा है। लेकिन उसको मिथ्याज्ञान कहा है; उसे यहाँ उपयोग में लिया ही नहीं है।।४६५।।
(श्री अलिंगग्रहण पुस्तक में से, पैरा २, पृष्ठ ३९) * जिस उपयोग को ज्ञेयपदार्थों का अवलम्बन नहीं है परन्तु अपने आत्मा का आलम्बन है ऐसा उपयोग लक्षण वाला तेरा आत्मा है। इस प्रकार अपने स्वज्ञेय को तू जान। इस तरह तेरे आत्मा को बाह्य पदार्थों के आलम्बन वाला ज्ञान नहीं है बल्कि स्वभाव के आलम्बन वाला ज्ञान है। ऐसे अपने आत्मरूप स्वज्ञेय को तू जान।।४६६ ।।
(श्री अलिंगग्रहण पुस्तक में से, पैरा ४, पृष्ठ ४०) * अब आठवें बोल में कहते हैं कि ज्ञान पर में से नहीं लाया जाता। जो ज्ञान का व्यापार ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध स्वभाव का अवलम्बन छोड़कर निमित्त का लक्ष करे उसे ज्ञान उपयोग ही नहीं कहते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियों से जाने वह आत्मा नहीं कहलाता उसी प्रकार उपयोग पर का अवलम्बन ले उसे उपयोग नहीं कहा जाता।।४६७।।
(श्री अलिंगग्रहण पुस्तक में से, पैरा ४, पृष्ठ ४२)
* प्रश्न : शास्त्र से आत्मा को जाना और बाद में परिणाम आत्मा में मग्न हो तो इन दोनों में आत्मा को जानने में क्या फेर है ?
उत्तर : शास्त्र से जो ज्ञान किया वह तो साधारण धारणारूप जानपना है, और आत्मा में मग्न होकर अनुभव में तो आत्मा को प्रत्यक्ष वेदन से जानते हैं, इसलिये इन दोनों में बड़ा फेर है, अनन्त गुणा फेर है।।४६८।।
( श्री परमागमसार, पृष्ठ १४ , बोल ३७)
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*मैं आँख से रूप को देखता हूँ, यह मान्यता मिथ्या है।
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