________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है।।४६२।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा २, पृष्ठ १२८) * यहाँ उपयोग की बात चलती है। उपयोग चैतन्य का चिन्ह है। उपयोग आत्मा को अवलम्बता है। आत्मद्रव्य भी ज्ञेय है, गुण ज्ञेय है और पर्याय भी ज्ञेय है, उपयोग भी ज्ञेय है। उपयोग का स्वभाव जानने, देखने का है। वह परज्ञेयों को नहीं अवलम्बता है। क्योंकि परज्ञेयों में उपयोग नहीं है। जो जिसमें नहीं होता है, उसका अवलम्बन वह किस प्रकार ले ? परज्ञेयों में किसी में भी जानने-देखने का स्वभाव अर्थात् उपयोग नहीं है इसलिए उपयोग पर का अवलम्बन ले ऐसा उपयोग का स्वभाव नहीं है।।४६३ ।।
(श्री अलिंगग्रहण पुस्तक में से, पैरा ४, पृष्ठ ३४-३५)
* आत्मा को परज्ञेयों का अवलम्बन तो है ही नहीं, परन्तु उसकी ज्ञान पर्याय जो उपयोग है उसको भी ज्ञेयों का अवलम्बन नहीं है। उपयोग का स्वभाव जानना-देखना है, वह ज्ञेयों के कारण नहीं जानता है। उपयोग का ऐसा स्वरूप है-ऐसे उस ज्ञेय को तू जान। उपयोग अकारणीय है ऐसा जान। उपयोग में परज्ञेय का अभाव है तो उसका अवलम्बन किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता। परन्तु व्यवहार का कथन आता है वहाँ जीव अज्ञान के कारण भूल कर बैठता है।।४६४।।
(श्री अलिंगग्रहण पुस्तक में से, पैरा २, पृष्ठ ३७) * पर पदार्थ को ही मात्र लक्ष्य में लेकर, पर के अवलम्बन से प्रगट हुआ ज्ञान वह ज्ञान ही नहीं है। निमित्तों के अवलम्बन वाला, मन के अवलम्बन वाला, इन्द्रियों के अवलम्बन वाला, पंचपरमेष्ठी के अवलम्बन वाला, शास्त्र के अवलम्बन वाला-ऐसा अकेला परलक्षी
२२७
* आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता है
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com