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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
हुआ जो ज्ञान उसको अपना मानना वह मिथ्यात्व है। राग मिथ्यात्व नहीं है परन्तु उसको धर्म मानना वह मिथ्यात्व है। अज्ञानी दया, दान, व्रत, भक्ति आदि राग के ज्ञान को ही ज्ञेयमात्र आस्वादते हैं। जिन्हें ज्ञेयाकार ज्ञान की दृष्टि और रूचि है, उन्हें ज्ञेयों से भिन्न ज्ञानमात्र का आस्वाद नहीं होता। उन्हें अन्तर्मुख दृष्टि के अभाव में राग काआकुलता का ही स्वाद आता है।।४६० ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, अन्तिम पैरा, पृष्ठ २६७–२६८) * जैनशास्त्र पढ़ना, सुनना और उनको धारणा में रखना ये कोई सम्यज्ञान नहीं है। जिनवाणी तो एक तरफ रही, यहाँ तो जिनवाणी सुनने पर जो ज्ञान (विकल्प) अन्दर में होता है, वह सम्यग्ज्ञान है ऐसा भी नहीं है। द्रव्यश्रुत का ज्ञान यह तो विकल्प है। परन्तु अन्दर भगवान चिदानन्द रसकन्द है उसको दृष्टि में लेकर एकमात्र ज्ञानमात्र का अनुभवन करना यह भावश्रुतज्ञान है, यह सम्यज्ञान है, यह जैनशासन है। निज स्वरूप का अनुभवन वह आत्मज्ञान है। शुद्धज्ञानरूप स्वसंवेदन ज्ञान का (त्रिकाली का) स्वसंवेदन-अनुभवन यह भावश्रुतज्ञान रूप जिनशासन का अनुभवन है।।४६१।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा ३, पृष्ठ २६८)
* ज्ञान की पर्याय में परज्ञेय भले ही ज्ञात हों, परन्तु इस ज्ञान की पर्याय का सम्बन्ध किसके साथ है ? यह ज्ञेय का ज्ञान है कि ज्ञाता का ? तो कहते हैं कि सर्वश्रुत को जानने वाला ज्ञान ज्ञाता का है, आत्मा का है। उस ज्ञान की पर्याय का आत्मा के साथ तादात्म्य है। वह ज्ञान आत्मा को बताता है, इसलिये वह भेदरूप व्यवहार है। व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है। अतः जो सर्वश्रुतज्ञान को जाने वह व्यवहार श्रुतकेवली
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*मैं पर को जानता हूँ-ऐसा मानने वाला दिगंबर जैन नहीं है
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