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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है वस्तु जो ज्ञायक रूप है उसको ज्ञान में लेकर अन्तर में ध्यान करता है उसके मन के विकल्प-राग विश्राम को प्राप्त हो जाते हैं, हट जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, मन शान्त हो जाता है, तब अतीन्द्रिय आनन्द के रस का स्वाद आता है। परिणाम अन्तर्निमग्न होने पर अनाकुल सुख का स्वाद आता है, उसे अनुभव अर्थात् जैनशासन कहते है।।४५६ ।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा २, पृष्ठ २६३) * ज्ञेयों में आसक्त हैं, वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हैं। जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होते हैं, वे इन्द्रियों के विषय हैं। देव, गुरु, शास्त्र, साक्षात् भगवान और भगवान की वाणी 'वे' इन्द्रियों के विषय हैं। समयसार गाथा ३१ में आया हैं कि : “ कर इन्द्रिय जय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आत्मा को" पाँच द्रव्येन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ-तीनों को इन्द्रियाँ कहा जाता है। इन तीनों को जीतकर अर्थात् इनकी ओर के झुकाव-रुचि को छोड़कर इनसे अधिक अर्थात् भिन्न अपने ज्ञानस्वभाव को-अतीन्द्रिय भगवान को अनुभवना-यही जैनशासन है। अपने स्वज्ञेय में लीनता रूप ऐसी यह अनुभूति-शुद्धोपयोगरूप परिणति ही जैनशासन है। इससे विरुद्ध अज्ञानी को परिपूर्ण जो स्वज्ञेय है उसकी अरुचि है और इन्द्रियादि के खण्ड-खण्ड ज्ञेयाकारज्ञान की रुचि व प्रीति है। वे परज्ञेयों में आसक्त हैं-इससे उन्हें ज्ञान का स्वाद नहीं आने से राग काआकुलता का स्वाद आता है। राग का स्वाद, राग का वेदन अनुभव में आना-यह जैनशासन से विरुद्ध है, इसलिए अधर्म है। शुभक्रिया करना और इसे करते-करते धर्म हो जायेगा-ऐसी मान्यता मिथ्याभाव २२३ *इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानना वह ज्ञान की भूल है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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