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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है। तथा शुभाशुभ राग से भिन्न अन्तर आनन्दकंद भगवान आत्मा को ज्ञेय बनाकर ज्ञायक के ज्ञान का वेदन करना यह जिनशासन है, धर्म है।।४५७ ।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा ३-४, पृष्ठ २६३) * अलुब्ध ज्ञानियों को तो जैसे नमक की डली से अन्य द्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल नमक ही का अनुभव करने पर, सर्व ओर से एक क्षाररसपने को लिए क्षारपने स्वाद में आता हैं; उसी प्रकार आत्मा भी, परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का ही अनुभव करने में आता हुआ सर्व ओर से एक विज्ञानघनपने के कारण मात्र ज्ञानरूप से स्वाद में आता है। तथा जैसे नमक की डली में अन्य द्रव्य के संयोग का निषेध करके केवल नमक की डली का अनुभव करने में आवे तो सर्वत्र क्षारपने को लिए हुए ये क्षारपना स्वाद में आता है नमक की डली सीधी नमक के द्वारा स्वाद में आती है, यह यथार्थ है। उसी प्रकार अलुब्ध ज्ञानियों को अर्थात् जिनको इन्द्रियों के समस्त विषयों की, जो परज्ञेय हैं उनकी आसक्ति-रूचि छूट गई हैं ऐसे ज्ञानियों को अपने सिवाय अन्य समस्त परद्रव्य और परभावों का लक्ष छोड़कर एक ज्ञायकमात्र चिद्घन स्वरूप का अनुभव करने से सर्वतः एक विज्ञानघनपने के कारण वह ज्ञानरूप से स्वाद में आता है। अकेला ज्ञान सीधा ज्ञान के स्वाद में आता है। यह आनन्द का वेदन है, यह जैनशासन है, इसका नाम सम्यकदर्शन और ज्ञान की अनुभूति है।।४५८।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा १, पृष्ठ २६६) * एक ओर स्वद्रव्य है दूसरी ओर समस्त परद्रव्य है। 'एक ओर राम
और दूसरी ओर ग्राम'। ग्राम अर्थात् (परद्रव्यों का) समूह। अपने सिवाय जितने परद्रव्य हैं, वे ग्राम में शामिल होते हैं। परज्ञेय-पंचन्द्रियों के
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* पर ज्ञेय को ज्ञेय मानना ज्ञेय की भूल हैं
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