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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है जैसे प्रकाश में ही वस्तु स्पष्ट दिखती हैं; उसी प्रकार भेदज्ञान प्रकाश में ही आत्मवस्तु स्पष्ट रूप से भिन्न दिखाई देती है। निर्मल भेदज्ञानप्रकाश में आत्मा का एकपना स्पष्ट देखना-यह मुद्दे की बात है। भाई! थोड़ी दया पालो, भक्ति करो, व्रत करो, आदि सब व्यर्थ है।।४५२ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा ३, पृष्ठ ७५)
* राग के विकल्प और परलक्षी ज्ञान ही मानों मेरी चीज हो, ऐसी मान्यता के कारण ज्ञायक प्रकाशमान चैतन्यज्योति ढंक गई है। अपने में अनात्मज्ञपना होने से अर्थात् अपनी आत्मा के ज्ञान का अभाव होने से अन्दर प्रकाशमान चैतन्य-चमत्कार वस्तु विराजमान है उसको कभी जाना भी नहीं है और अनुभव भी नहीं है। अपने आत्मा का एकापना नहीं जानता होने से और आत्मा को जानने वाले संतों-ज्ञानियों की संगति-सेवा नहीं करने से, भिन्न आत्मा का एकत्व कभी सुना नहीं, परिचय में आया नहीं और इसलिये अनुभव में भी आया नहीं। आत्मज्ञ संतों ने राग से और परलक्षी ज्ञान से भिन्न आत्मा का एकत्व कहा; परन्तु वह इसने माना नहीं; इसलिये उनकी संगति-सेवा करी नहीं ऐसा कहा है। गुरू ने जैसा आत्मा का स्वरूप कहा वैसा इसने माना नहीं। परन्तु बाह्य प्रवृत्ति में जीव रुक गया। दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि के शुभ राग में धर्म मानकर रुक गया।।४५३।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १, पैरा २, पृष्ठ ७५) * परन्तु अब यहाँ, सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेषज्ञान के तिरोभाव से जब ज्ञान मात्र का अनुभव करने में आता है तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है। देखो! राग-मिश्रित ज्ञेयाकार ज्ञान जो (पूर्व) में था उसकी रुचि छोड़कर (पर्यायबुद्धि छोड़कर) और ज्ञायक की रुचि का परिणमन करके सामान्य ज्ञान का पर्याय में अनुभव करना उसे सामान्य
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*इन्द्रियज्ञान में स्व-पर का विवेक नहीं होता हैं?
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