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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* प्रश्न : समयसार पढ़ना हो तो स्व का अवलम्बन कैसे लेवे ?
उत्तर : अवलम्बन सीधा आत्मा का ही लेना - एक ही बात ! इसमें से ( समयसार में से ) पढ़कर निकालना तो ये है ( स्व का अवलम्बन लेना ) ।
शास्त्र पढ़कर, समझना तो यह है कि-स्व का लक्ष करना - वह उपयोग लक्षण है, और उससे आत्मा का कल्याण है। राग से तो कल्याण नहीं - शुभ-योग से तो मोक्षमार्ग नहीं - लेकिन परावलम्बी ज्ञान से भी मोक्षमार्ग नहीं है।
क्योंकि भगवान आत्मा मुक्तस्वरूप, अबंधस्वरूप कहो या मुक्तस्वरूप कहो एकार्थ है । इस मुक्तस्वरूप के आश्रय से - लक्ष से - जो उपयोग होता है वह मुक्ति का कारण है। पर्याय में मुक्ति का वह कारण है। समकिती को भी जितना परावलम्बी ज्ञान है उसे मोक्षमार्ग नहीं कहा है।।४५१।।
( श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* निर्मल भेदज्ञानरूप प्रकाश से स्पष्ट भिन्न देखने में आता है ऐसा इस भिन्न आत्मा का एकपना ही सुलभ नहीं है। देखो ! राग से भिन्न और परलक्षी ज्ञान से भी भिन्न और अपने से अभिन्न- ऐसा आत्मा का एकपना निर्मल भेदज्ञानरूपी प्रकाश से स्पष्ट भिन्न देखने में आता है। जीव ने परलक्षी ज्ञान भी अनन्त बार किया है। ग्यारह अंग और नौ पूर्व का ज्ञान है, वह भी परलक्षी ज्ञान है। उससे आत्मा का एकपना भिन्न नहीं दिखता। राग और पर का लक्ष छोड़कर स्वद्रव्य के ध्येय व लक्ष से जो भेदज्ञान होता है, उस भेदज्ञान से आत्मा का एकपना दिखाई देता है ।
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* मैं पर में तन्मय होऊँ तो पर को जानूँ *
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