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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ( आत्मा का) नहीं है लेकिन पर के लक्ष से हुआ ज्ञान का उपयोग ये भी उसका ( आत्मा का) नहीं है।।४४८।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२ , अलिंगग्रहण बोल ७ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * जो उपयोग स्व के लक्ष से लक्ष्य के लक्ष से प्रकट होता है वह उपयोग मोक्ष का कारण है-पर के लक्ष से-निमित्त के लक्ष से जो उपयोग होता है वह बंध का कारण है। परसत्तावलंबी उपयोग ये बंध का कारण है। यह तो बापू! अन्तर की बातें है। यह कोई वाद-विवाद से बैठे ( समझ में आवे) ऐसा नहीं है। पंडिताई का इसमें कुछ काम नहीं है।।४४९ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * आहा! उपयोग नाम के लक्षण द्वारा किसका लक्षण है उपयोग ? आत्मा का लक्षण है। इसके द्वारा ग्रहण अर्थात् ज्ञेयपदार्थ का जिसको अवलम्बन नहीं है; इस उपयोग नाम के लक्षण को जो ज्ञेय-परपदार्थ हैं, चाहे तीर्थंकर हों या तीर्थंकर की वाणी हो या शास्त्र के पृष्ठ होंइस उपयोग नाम के लक्षण द्वारा परज्ञेय का आलम्बन जिस उपयोग में नहीं है उसे अलिंगग्रहण कहने में आता है। ज्ञेय के अवलम्बन से होता है-वह लिंग है और उससे अलिंगग्रहण ऐसा आत्मा ग्रहण नहीं हो सकता! यह चमत्कारिक-आध्यात्मिक ग्रंथ है। इसकी वाणी में चमत्कृति है। वस्तु में (आत्मा में) जो चमत्कृति है उसे वाणी में खुला कर दिया है।।४५० ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) २१९ __ * मैं पर को जानता हूँ इसमें आत्मा का नाश हो गया Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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