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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* द्रव्यश्रुत का जो ज्ञान है, वह तो शब्दज्ञान है। ‘बंध अधिकार' में कहा है कि ज्ञान है आत्मा का लक्षण और यह ज्ञान पर को जानने के लिए जावे-जिसका लक्षण है उसको जानने ना जावे और जिसका लक्षण नहीं है उसकी तरफ जावे उसे जाने-तो यह उपयोग-जाननेदेखने का उपयोग वह आत्मा का उपयोग नहीं है। गजब बात है!।।४४६।।
( श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के
___ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * आहा! दिगम्बर संतों सत्य बात, पर्याय में चारित्र-धर्म प्रगट करके कहते हैं कि जिस ज्ञानोपयोग में जिस उपयोग में पर जिसका लक्षण नहीं है; पर जिसका लक्ष्य नहीं है-ऐसा ज्ञानोपयोग जीव का लक्षण है। और जीव उसका लक्ष्य है। इसके बदले पर के लक्ष में यें उपयोग झुके-इस उपयोग को आत्मा का उपयोग ही नहीं कहते। आहा! गजब बात की है ने! ऐसी बात है। यह तो अन्दर से आता हो तब ऐसी बात आती है ने। ये तो अन्दर की ( अनुभव की) बातें हैं।।४४७।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के
___ ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * जिसको जानने-देखने के उपयोग में पर का अवलम्बन होवे कहते हैं कि वो उपयोग नहीं है। आत्मा का उपयोग नहीं है। गजब बातें है। ये उपयोग पराधीन–पर को अवलम्बता है ने? और जिसके लक्षण का ये लक्ष्य ही नहीं है, लक्षण का लक्ष्य तो अन्दर चिदानन्द प्रभु पूर्ण है, उसके लक्ष से होने वाला उपयोग वह उपयोग आत्मा का है। और जिसका लक्षण नहीं है ऐसे निमित्त के अवलम्बन से जो उपयोग होता है-वह उपयोग उसका नहीं है। आहाहा...! ऐसी बाते हैं। अरे! यहाँ तो जन्म-मरण का अभाव करने की बातें है। चौरासी के अवतार होवें यह भाव उसका
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*इन्द्रियज्ञान मूर्तिक है
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