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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आलम्बन है-यह उपयोग जीव का आत्मा का नहीं है। आहाहा...! ऐसी बात है।।४४३।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* बापू! आत्मा का लक्षण उपयोग है; लक्ष्य द्रव्य-आत्मा है। अब इस उपयोग लक्षण के द्वारा लक्ष्य को जाने। वह उपयोग है। परज्ञेय केअवलम्बन से जो जानना होता हैं वह उपयोग जीव का-आत्मा का नहीं है। आहा! गजब बात की है ने ? परसत्तावलंबी ज्ञान सम्यकदृष्टि को भी होता है लेकिन वह ज्ञान स्वउपयोग नहीं है। वह ज्ञान आत्मा का उपयोग नहीं है। जिस उपयोग में निमित्त का आश्रय-आलम्बन आवे वह उपयोग आत्मा का नहीं है।।४४४ ।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल ७ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से)
* आहाहा...! भगवान त्रिलोकनाथ, जिनेन्द्र देव ऐसा कहते हैं कि जो ज्ञान-दर्शन का उपयोग है, वह आत्मा का लक्षण है, अर्थात् की वह आत्मा को जानता है; लेकिन ये लक्षण पर को जानने की तरफ झुका हो तो यह आत्मा का लक्षण नहीं है। आत्मा का उपयोग नहीं है।
श्रोता: तो फिर द्वादशांग ज्ञान आत्मा का नहीं है ?
समाधान : बारह अंग का परलक्षी ज्ञान यह आत्मा का ज्ञान नहीं है। स्व के आश्रय से होने वाला भावश्रुतज्ञान आत्मा का है।।४४५।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२ , अलिंगग्रहण बोल ७ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से)
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* पर को जानने से ज्ञान भी नहीं, सुख भी नही*
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