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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
द्रव्य के साथ अभेद है।
सम्यक्ज्ञान होता है तब जन्म-मरण का अन्त आता है । । ४२९ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १–२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* यह भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूपी है; यह अखण्ड अतीन्द्रिय ज्ञानमयी है। इन्द्रिय और मन से जानना यह खण्ड-खण्ड ज्ञान है। शास्त्र का इन्द्रिय और मन से जो जानना होता है - वह शास्त्रज्ञान होता तो पर्याय में है लेकिन वह ज्ञान अखण्ड नहीं है, खण्ड-खण्ड है। इसलिए यह खण्ड–खण्ड (ज्ञान) जानना ( कार्य ) आत्मा का नहीं है, ग्यारह अंग पढ़े और नौ पूर्व को जानने की लब्धि वो भी खण्ड-खण्ड ज्ञान है।।४३०।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १–२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* यह आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा जानने का कार्य करता है। स्वयं कैसे जानने में आता है वह दूसरे बोल में लेंगे।
इन्द्रियों से (पर को ) जानने में लगा रहे वह तो दुःखी होने का पंथ है कारण कि उसमें आत्मा के ज्ञान का स्वाद आना चाहिए वह नहीं आता है ।।४३१।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १–२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
पढ़कर, सुनकर जो शास्त्र का ज्ञान होता है वह भी खण्ड-खण्ड है, अखण्ड नहीं है। परसत्तावलंबी ज्ञान है, वह बंध का कारण है इसलिए
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इन्द्रियज्ञान विभाव है इसलिये उसका निषेध कराया है*
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