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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मा की शान्ति उसमें नहीं आती। वह आत्मज्ञान नहीं है । । ४३२ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १–२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* यहाँ तो ऐसा कहते हैं कि इन्द्रिय के आधार से - इन्द्रिय के अवलम्बन से जो ज्ञान होता है वह ज्ञान ही नहीं है। भगवान की सीधी वाणी सुनकर जो ज्ञान होता है वह भले वाणी से ना हो, होता है अपनी पर्याय में अपनी योग्यता से, फिर भी वह ज्ञान खण्ड-खण्ड है।
और प्रभु आत्मा तो अतीन्द्रिय ज्ञानमयी है, इन्द्रिय ज्ञान से भिन्न है । ऐसी बात है ।।४३३ ।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १-२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान से जानने का काम करे तब आश्रव का निरोध होता है। लेकिन दुनिया के रस वाले को अतीन्द्रिय ज्ञान का रस बैठना ( समझना, अनुभवना) बहुत कठिन है कारण कि अज्ञानी को अनादि का इन्द्रिय ज्ञान का रस चढ़ा है। इसलिए ( उसका निरोध होकर) अतीन्द्रिय ज्ञान प्रकट नहीं होता । जैसे शुभराग व्यभिचार है वैसे ही इन्द्रियज्ञान भी व्यभिचार है। अरे! प्रभु ! तुझे क्या कहना है ? इसलिए इन्द्रियों (द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय) का लक्ष छोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान से जानने का कार्य कर; अतीन्द्रिय से काम ले अन्दर से ।
अतीन्द्रिय (ज्ञान) से जाननेवाला उसे यहाँ अलिंगग्रहण कहने में आया है ।।४३४ ।।
(श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १–२ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
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* जिस बात से अनुभव होवे वही बात सत्य है*
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