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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
इन्द्रियों से प्रवर्त्तता हुआ ज्ञान कहीं ज्ञान नहीं है।।४०९ ।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८५, पैराग्राफ ७)
* आठ कर्म जो हैं वह ज्ञान नहीं हैं ,क्योंकि कर्म अचेतन हैं। कर्म के लक्ष वाला ज्ञान होता है वो भी ज्ञान नहीं है, कर्म का बंध , सत्ता, उदय, उदीरणा इत्यादि कर्म सम्बन्धी जो ज्ञान होता है वह ज्ञान नहीं है। कर्म सम्बन्धी ज्ञान होता है अपने में अपनी योग्यता से, कर्म तो उसमें निमित्त मात्र है; लेकिन वह ज्ञान आत्मा का ज्ञान नहीं है। आहाहा...! भगवान आत्मा अन्दर अबद्ध-अस्पृष्ट है; स्वरूप से आत्मा अकर्म-अस्पर्श है। आहा! ऐसे अकर्मस्वरूप प्रभु को अंत: स्पर्श करके प्रवर्ते उस ज्ञान को ज्ञान कहते हैं।।४१०।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८५, पैराग्राफ ९)
* भाई! कर्म है ऐसा शास्त्र कहे, और ऐसा तुझे ख्याल ( ज्ञान में) आवे तो भी वह कर्म सम्बन्धी का ज्ञान है वह आत्मा का ज्ञान नहीं है। कर्म अचेतन है; इसलिए ज्ञान जुदा है और कर्म जुदा है।।४११ ।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८६, पैराग्राफ ५) * यहाँ कहते हैं-यह धर्मास्तिकाय ज्ञान नहीं है। और धर्मास्तिकाय है ऐसा ख्याल (ज्ञान में) आया तो वो ज्ञान भी ज्ञान नहीं है। धर्मास्तिकाय में ज्ञानस्वभाव भरा नहीं है; भगवान आत्मा अन्दर ज्ञानस्वभाव से भरपूर भरा है। आहा! उसके आश्रय से जो ज्ञान प्रकट होता है वह सम्यज्ञान है और वह ज्ञान मोक्ष का मार्ग है।।४१२ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८७, पैराग्राफ १)
* यह आकाशद्रव्य है वह ज्ञान नहीं है। और उसका लक्ष होने से यह आकाश है' ऐसा जो ज्ञान होता है वह परलक्षी ज्ञान भी परमार्थ से ज्ञान
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* इन्दियज्ञान पर की प्रसिद्धि करता है
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