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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
गंध का ज्ञान होता है वह भी ज्ञान नहीं है। आत्मज्ञान ही एक ज्ञान है।।४०६ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८५, पैराग्राफ २)
* देखो, खट्टा, मीठा, इत्यादी भेदपने जो रस है, वह ज्ञान नहीं है; और उस रस का जो ज्ञान होता है वो भी ज्ञान नहीं है। रस तो बापू! जड़ है, और जड़ का ज्ञान होता है वो भी जड़ है। भगवान आत्माचैतन्य ज्योतिस्वरूप प्रभु है। उसका ज्ञान होता है वही ज्ञान है। आहाहा...! स्वसंवेदन ज्ञान ही ज्ञान है, वही सम्यग्ज्ञान है और उसी को मोक्षमार्ग माना गया है। समझ में आया कुछ... ? ।।४०७।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८५, पैराग्राफ ४)
* शरीर के स्पर्श का ज्ञान होता हैं-वह ज्ञान नहीं है; उसके लक्ष से जो ज्ञान हुआ वह तो जड़ का ज्ञान है, वो कहाँ आत्मा का ज्ञान हैं ? भाई! जिसके पाताल के गहरे तल में चैतन्य प्रभु परमात्मा विराजता है उस ध्रुव के आश्रय से ज्ञान होता है-वही...वास्तविक ज्ञान है। अहाहा...! असंख्य प्रदेश में अनन्त गुणों का पिण्ड प्रभु आत्मा है। उसकी पर्याय अन्दर गहराई में ध्रुव की तरफ जाकर प्रकट होती हैवह ज्ञान है, वह धर्म है। ऐसी बात है।।४०८ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८५, पैराग्राफ ६) * प्रश्न : हाँ, लेकिन कितनी गहराई में ये ध्रुव है ?
उत्तर : आहाहा...! अनन्त-अनन्त गहराईमय जिसका स्वरूप हैउसकी मर्यादा क्या ? द्रव्य तो बेहद अगाध स्वभाववान है, उसके स्वभाव की मर्यादा क्या ? आहाहा...! ऐसा अपरिमित ध्रुव-दल अन्दर में है वहाँ पर्याय को ले जाना ( केन्द्रित करना) उसका नाम सम्यज्ञान है।
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*पर ज्ञेय के लक्ष से इन्दियज्ञान प्रगट होता है
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