________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
परलक्षी ज्ञान वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। ऐसी बात है।।४०२।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८४, पैराग्राफ १) * इसलिए ज्ञान और रूप में व्यतिरेक है, भिन्नता है। शास्त्र में ऐसा आता है कि भगवान के शरीर का प्रभामंडल ऐसा होता है कि उसे देखने वाले को सात भव का ज्ञान होता है। यह एक पुण्य प्रकति का प्रकार है। उन भगवान के भामंडल के तेज से कहीं ज्ञान नहीं हुआ है।
और उसको देखने से जो ज्ञान हुआ हैं वह ज्ञान नहीं है (भव बिना के आत्मा को देखे जाने-वह ज्ञान है)-वस्तुस्थिती ऐसी है। रूप और ज्ञान जुदा है।।४०३।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८४, पैराग्राफ ३)
* रंग वह ज्ञान नहीं है, और रंग के निमित्त से जो ज्ञान होता है वह भी वास्तव में ज्ञान नहीं है। सुन्दर स्वरूपवान चिद्रूप अन्दर भगवान आत्मा है, उसके आश्रय से ज्ञान होता है वह परमार्थ ज्ञान है।।४०४।।
(श्री प्रवचन रत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८४, पैराग्राफ ५)
* ज्ञान के साथ अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव अविनाभावी होता है। वह ज्ञान स्व के लक्ष से होता है। पर के-रंग के लक्ष से ज्ञान होता है वह ज्ञान (आत्मज्ञान) नहीं है, वह तो अचेतन है। इसलिए रंग जुदा है और ज्ञान जुदा है।।४०५।।
(श्री प्रवचन रत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८४, पैराग्राफ ६) * ये कुछ लोगों की श्वास में दुर्गन्ध आती है ने! भगवान की श्वास सुगन्धित होती है। शरीर के परमाणुओं में सुगन्ध-सुगन्ध होती है। आहा! उसके निमित्त से जो गंध का ज्ञान होता है वह ( यहाँ कहते हैं) ज्ञान नहीं है; गंध और ज्ञान में भिन्नता है। गंध वह ज्ञान नहीं है, और
२०३
*पर ज्ञेय के लक्ष से इन्दियज्ञान प्रगट होता है
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com