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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अन्दर में ज्ञान का दरिया (समुद्र) आत्मा है उसका स्पर्श करके जो ज्ञान प्रकट होता है वो वास्तविक ज्ञान है। इसके सिवाय ग्यारह अंग और नौ पूर्व पढ़ जाये तो भी वो ज्ञान नहीं है । । ३९९ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पैराग्राफ ६, पृष्ठ १८१ )
* आहाहा...! द्रव्यश्रुत वो ज्ञान नहीं है, आत्मा नहीं है; इससे आत्मा भिन्न है। और द्रव्यश्रुत का जो ज्ञान होता है उससे भी आत्मा भिन्न है। प्रवचनसार में आता है कि द्रव्यश्रुत को बाद करो तो अकेला ज्ञान रह जाता है । आहा...! समयसार, प्रवचनसार, आदि शास्त्रों में गजब की रामवाण बाते हैं। बापू ! शब्दों का ज्ञान वो वास्तविक ज्ञान नहीं है( आत्मज्ञान नहीं है ) ।।४०० ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पैराग्राफ ७, पृष्ठ १८१ )
* देखो, आचारांग में १८००० पद हैं, और एक-एक पद में इक्यावन करोड़ जितने ज्यादा श्लोक हैं । उसका जो ज्ञान होता है वो शब्दज्ञान है । आहा! जो ज्ञान अतीन्द्रिय नहीं है, जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द नहीं है वह ज्ञान ज्ञान नहीं है । पाँच-पचास हजार श्लोक कंठस्थ हो जाये उससे क्या? अन्दर भगवान ज्ञानस्वभाव का सागर है उसको स्पर्श करके जो नहीं होता उसे ज्ञान नहीं कहते ।।४०१ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८२, पैराग्राफ १ )
* शब्द है वो कोई भावश्रुत नहीं है; शब्द तो जड़ अचेतन ही है, और शब्द का जो ज्ञान होता है वह भी जड़ अचेतन है । जो ज्ञान अन्दर चकचकाट चैतन्य ज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा है उसके लक्ष से प्रकट होता है वह ज्ञान ही ज्ञान है, वह आत्मज्ञान है। भले शब्द श्रुतज्ञान न होय, लेकिन चैतन्य के स्वभाव झरने में से प्रकट होता है वह सम्यग्ज्ञान है। बाकी शब्द के आश्रय से- निमित्त से होने वाला ज्ञान अचेतन है।
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* इन्द्रियज्ञान में आकुलता है, अतीन्द्रिय ज्ञान में निराकुल आनन्द हैं * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com