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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं है। यहाँ तो स्वसंवेदन ज्ञान को ही परमार्थ ज्ञान कहा है। परलक्षी ज्ञान होता है वह भी पर की तरह ही अचेतन है । इसलिए ज्ञान और आकाश दोनों जुदा हैं। अर्थात् ज्ञान का ( आत्मा का आकाश ) नहीं है।।४१३।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ १८७, पैराग्राफ ७ )
दूसरी तरह कहे तो गाथा १७-१८ में कुंदकुंदाचार्य तो ऐसा कहते हैं कि भले अज्ञानी की ज्ञानपर्याय हो उसमें आत्मा ही जानने में आता है। अज्ञानी की पर्याय का स्वभाव भी स्व पर प्रकाशक होने से पर्याय में स्व ज्ञायक चिदानन्द भगवान पूर्ण जानने में आता है। ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक है तो इस पर्याय में अकेले पर को जाने ऐसा हो ही नहीं सकता। ये पर्याय स्व को जाने और पर को जाने ऐसा ही इसका स्वभाव है; फिर भी अज्ञानी की दृष्टि एक ऊपर ( ज्ञायक भाव के ऊपर) नहीं जाती। मैं एक को ( ज्ञायक को ) जानता हूँ ऐसे ( दृष्टि ) वहाँ नहीं जाती, मैं राग को और पर्याय को जानता हूँ इस प्रकार दृष्टि वहा मिथ्यात्व में ही रहती है । । ४१४ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ ४५, पैराग्राफ ५ )
* सूक्ष्म बात है प्रभू ! बालक से लेकर वृद्ध सभी को उसकी ज्ञान की पर्याय में सदाकाल स्वयं ही ( आत्मा ही ) अनुभव में आने पर भी अर्थात् ज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही ऐसा है कि उस पर्याय में सदाकाल एक समय के विरह बिना त्रिकाली आनन्द का नाथ ही जानने में आता है। फिर भी इस पर्याय में आत्मा जानने में आ रहा है - ऐसे दृष्टि वहाँ नहीं जाती।।४१५।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ ४६, पैराग्राफ २ ) * त्रिकाली ज्ञानगुण उसका जैसे स्व- परप्रकाशक स्वभाव है वैसे ही
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