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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है के द्वारा देख; तभी तुझे अवस्था में सामान्य-सामान्य द्रव्य भगवान आत्मा जानने में आयेगा। अहाहा...! अवस्था को देखने वाली आँख बंद करके सामान्य को देखने पर देखने वाली विशेष पर्याय तो रहेगी, परन्तु पर्याय का देखने का विषय विशेष नहीं लेकिन सामान्य रहेगा। समझ में आया कुछ... ? ।।३८२।। (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पेज १३५, पैराग्राफ १) * देखो, यहाँ ऐसा नहीं कहा कि परद्रव्य को-स्त्री-पत्र-मित्र-धनादि को देखना बंद कर दे, क्योंकि जो स्वरूप में नहीं है उसकी बात किसलिए करें ? यहाँ तो कहते हैं-प्रभु! तेरे स्वरूप में दो-सामान्य और विशेष है। तो अभी ये दो हैं, इनमें से विशेष को देखने की आँख सर्वथा बंद करके खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देख। देखो। विशेष को देखने की आँख को कथंचित् खोलकर, और कथंचित बंद करके अथवा उसको गौण करके-ऐसी भी बात नहीं ली है। अहो! यह तो तत्काल सम्यकदर्शन-वस्तुदर्शन होने की बात है। पर्याय को देखना बंद कर दिया इसलिए द्रव्य को देखने वाला ज्ञान प्रकट हुआ-ऐसा कहते हैं। द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा द्रव्य को देखने वाला वह ज्ञान है तो पर्याय, लेकिन वह प्रकट हुआ ज्ञान है। अहो! क्या गम्भीर टीका है! भरत क्षेत्र में ऐसी बात अन्यत्र कहाँ है ? अहो! यह तो तीन लोक के नाथ की दिव्यध्वनि का अमृत संतों ने पिलाया है।।३८३।। (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३५, पैराग्राफ अन्तिम) * देखने वाला जो आत्मा है वो अपने सामान्य और विशेष को देखता है। परन्तु पर को नहीं। अहाहा...! खूब गम्भीर बात है! अपनी विशेषपर्याय में जो पर ज्ञात होते हैं वो वास्तव में अपनी पर्याय (ही) जानने में आती हैं; इसीलिए सामान्य और विशेष को देखने वाले-ऐसे दो चक्षु १९६ ___ * मैं पर को जानता हूँ ऐसी बुद्धि मिथ्या है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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