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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
कहे हैं। परन्तु पर की बात नहीं ली है । । ३८४ ।।
(श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३८, पैराग्राफ १ ) * इसमें अनुक्रम से कहा ने ? मतलब कि प्रथम सामान्य को जानता है, फिर विशेष को जानता है; कारण कि सामान्य का यथार्थ ज्ञान होवे तो विशेष का यथार्थ ज्ञान होता है । यहाँ पर को जानने की बात ही नहीं ली है क्योंकि आत्मा जो पर को जानता है वो वास्तव में तो अपनी पर्याय में पर्याय को जानता है। लो, ऐसी सूक्ष्म बात! पर को जानता है-ऐसा कहना ये तो असद्भुत व्यवहार है। वास्तव में त्रिकाल सामान्य आत्मा का जो विशेष है उस विशेष में विशेष को ही जानना है। पर को नहीं । यहाँ - विशेष के द्वारा पहले सामान्य को जानने के लिए कहा और फिर विशेष के द्वारा विशेष को जानने के लिए कहा; क्योंकि सामान्य को जानने पर ( सामान्य को जानते ही) जो ज्ञान प्रकट होता है वही, जो अपना विशेष है उसको, वास्तविक यथार्थ जान सकता है ।। ३८५ ।।
(श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३८, पैराग्राफ २ )
* कहते हैं कि सामान्य और विशेष को देखने वाली दो चक्षु है । तीन चक्षु नहीं कही हैं परन्तु अपना जो सामान्य स्वरूप है और अपना जो विशेष स्वरूप है-बस उसको जानने वाली दो चक्षु कही हैं। वहाँ जो विशेष में पर पदार्थ ज्ञात हो जाते हैं वह वास्तव में अपनी ही पर्याय है। अहो! क्या गम्भीर टीका है। और उसमें भी ' अनुक्रम से' शब्द है मतलब कि पहले सामान्य को देखता है और बाद में विशेष को देखता है । टीका में भी ऐसा ही लिया है । । ३८६ ।।
(श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३८, पैराग्राफ ३) * तो कहते हैं—— उसमें, पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके
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* इन्द्रियज्ञान आत्म अनुभव कराने में असमर्थ है*
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