________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है।।३७९।।
( श्री प्रवचनरत्नत्रय, प्रवचनसार गाथा ११४ ,
पृष्ठ १२९, अन्तिम पैराग्राफ) * यहाँ कहते हैं... “ वास्तव में सर्ववस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से वस्तु के स्वरूप को देखने वालों को अनुक्रम से (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाले दो चक्षु है- (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक” पाठ में ( गाथा में) तो इतना ही लिया है कि सामान्यविशेष को अनुक्रम से देखो। लेकिन यहाँ टीका में एक साथ देखने की बात भी लेंगे।।३८०।।
(श्री अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ १३४, पैराग्राफ ४) * तो कहते है- उसमें, पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके...' लो, यहाँ से शुरू किया है। द्रव्यार्थिक चक्षु को बंद करके-ऐसे शुरू नहीं किया। कहते हैं कि द्रव्य को देखने के लिए (द्रव्य दृष्टि के लिए) -पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद कर दे। गजब बात है भाई! पर्याय है तो सही परन्तु उसको देखने वाली दृष्टि बंद कर दे-इस प्रकार बात शुरू की है। पहले यह तो कहा कि-सामान्य-विशेषात्मक वस्तु है, विशेष नहीं है ये बात कहाँ है ? परन्तु अभी विशेष को-देखने की आँख बंद करके... आहाहा... ! है ? ( पाठ में ?) । ___ वो भी कथचित् बंद करके-ऐसा नहीं है। परन्तु ‘पर्यायार्थिक चक्षु को-सर्वथा बंद करके अकेले खुले हुए द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा'...।।३८१।।
(श्री अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ १३४, पैराग्राफ ५) * अहाहा!...भाषा तो देखो! अवस्था को देखने वाली पर्यायार्थिक चक्षु बंद करके द्रव्य सामान्य को देखनेवाली - जाननेवाली द्रव्यार्थिक, चक्षु
१९५
* मैं ज्ञायक और छह द्रव्य ज्ञेय वह भ्रांति है
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com