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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
उसमें फँस गये हैं, रुक गये हैं। इसलिए कुछ हाथ नहीं आता। भगवान अमृतचंद्राचार्य टीकाकार कहते हैं कि प्रभु! तू तो जाननहार स्वरूप सदा ही रहा है ने ? जाननहार ही जानने में आता है ने ? (जाणनार ज जणाय छे ने ?) आहाहा...! जाननहार ज्ञायक है वही जानने में आ रहा हैं-ऐसा नहीं मानता हुआ बंध के वश जो ज्ञान में पर रागादि प्रतिभासते हैं उनके साथ एकपने का निर्णय (अभिप्राय) करता हुआ मूढ जो अज्ञानी उसे “ यह अनुभूति है वही मैं हूँ"-ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता। सूक्ष्म बात है भाई! यह टीका साधारण नहीं है। बहुत मर्म भरा हुआ है।।३७७।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३४, पैराग्राफ २) * अरे भाई! तू दुःखी प्राणी अनादि का है। राग के-बंध के वश हुआ इसलिए दुखी है। यह निराकुल भगवान आनन्द का नाथ है। इसको पर्याय में-ज्ञान में जानने वाला मैं स्वयं ही हूँ, ऐसा नहीं जानता हुआ ज्ञान की पर्याय में पर के वश होता हुआ राग मैं हूँ-ऐसी मूढ़ता उत्पन्न करता है। थोड़े शब्दों मे मिथ्यात्व कैसे हुआ और सम्यक्त्व कैसे होवेउसकी बात की है।।३७८ ।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३५, पैराग्राफ १) * उसमें, पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके अकेले खोले हुए द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा जब अवलोकन करने में आता है, तब नारकपना, तिर्यंञ्चपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना-इन पर्यायों स्वरूप विशेषों में रहे हुए एक जीव सामान्य को ही देखने वाले और विशेषों को नहीं देखने वाले जीवों को “ वह सब जीवद्रव्य है" ऐसा भासित होता
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* मैं धर्मादि द्रव्य को जानता हूँ, यह अध्यवसान है*
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