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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है 99 * अभी, आत्मा और राग के बीच सांध है यह बात समज्ञाते हैं। (मोक्ष अधिकार २९४ गाथा में संधि की बात है ) यह बंध के वश होकर पर के साथ एकपने के निश्चय से “जाननहार - जाननहार जानने में आता है ऐसा नहीं जानता हुआ जाननहार की पर्याय वर्तमान कर्म सम्बन्ध के वश होकर (स्वतंत्रपने वश हुई ) पर के साथ - राग और पुण्य के विकल्पों के साथ एकपने का अध्यास - निर्णय करता है । मैं राग ही हूँ ऐसा मानता है फिर भी एकपना होता नहीं है। राग और आत्मा के बीच में संधि है। (सांध है ) राग का विकल्प और ज्ञानपर्याय इन दोनों के बीच में संधि है । जैसे बड़े पत्थर की खान होवे और उसमें पत्थर में पीली, लाल, सफेद रंग होती है। इन दोनों के बीच में संधि है इन पत्थरों को जुदा करना हो तो इस संधि में सुरंग डालने पर पत्थर उड़कर अलग हो जायेगा। उसी प्रकार ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा और राग के बीच में संधि है। अहाहा...! वहाँ तो ऐसा कहा कि निःसंधि नहीं हुआ अर्थात् दोनों एक नहीं हुए ( दोनों के बीच में संधि होने पर भी दोनों एक नहीं हुए हैं।) लेकिन ( दोनों के) एकपने के निश्चय से मूढ़ अज्ञानी उसे जो राग का विकल्प उठता है उसके वश होकर यहीं मैं हूँ, इस प्रकार परपदार्थ जो रागादि हैं उनको अपने मानता है, परन्तु राग से भिन्न अनुभव रूप अपनी वस्तु अलग है ऐसा भान नहीं होने से यह जाननहार जानने में आता है वही मैं हूँ ऐसा नहीं मानता।।३७६।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८, पृष्ठ ३४, पैराग्राफ १ ) * प्रवचनसार गाथा २०० में आता है कि ज्ञायकभाव कायम ज्ञायकपने ही रहा है। फिर भी अज्ञानी अन्य प्रकार से मैं यह राग हूँ, पुण्य हूँ- ऐसा अन्यथा अध्यवसाय करता है। भाई ! सूक्ष्म बात है। श्री जिनेन्द्र का मार्ग जुदा है। लोग तो बाहर में अकेले क्रियाकांड में- ये करना और वो करना १९३ सम्यग्ज्ञान का लक्षण - परलक्ष अभावात् * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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