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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ऊपर ढल जाती है (द्रव्यदृष्टि हो जाती है)।।३७३ ।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, परिशिष्ट पृष्ठ ३५७ ,
श्लोकार्थ २४७)
* यहाँ अमृतचन्द्राचार्य महाराज उदाहरण देकर कहते हैं कि-प्रथम तो आत्मा को जानना। जानना अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञान से उसको जानना। शास्त्र से जानना, धारणा से जानना या गुरु ने बताया है इसलिए जानना ऐसा नहीं। परन्तु शुद्ध ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा को पर्याय में ज्ञेय बनाने से, पर्याय में जो ज्ञान होता है उस स्वसंवेदन ज्ञान से आत्मा को जानना। तब आत्मा को जाना ऐसा कहा जाता है। ज्ञाताद्रव्य का पर्याय में ज्ञान होता है वहाँ द्रव्य पर्याय में आता नहीं है, बल्कि पर्याय में ज्ञाताद्रव्य का पूरा ज्ञान होता है। आत्मा को जानना इसका अर्थ ऐसा है कि एक समय की ज्ञान पर्याय में यह ज्ञेय पूर्ण अखण्ड ध्रुव शुद्ध प्रभु जैसा है वैसा परिपूर्ण जानने में आवे तब आत्मा को जाना ऐसा कहा जाता है। ऐसा बात है भाई! दुनिया अनेक प्रकार से विचित्र है। उसके साथ मेल करने जायेगा तो मेल नहीं होगा।।३७४।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ २७, पैराग्राफ अन्तिम) * भगवान की दिव्यध्वनि की संतों ने टीका की है। यहाँ टीका में प्रथम अर्थात् सबसे पहले ‘आत्मा को जान' ऐसा लिया है। नौतत्व को जान, राग को जान यह बात यहाँ नहीं ली है। एक को जानता हैं वह सर्व को जानता है। ज्ञान की पर्याय में पूरा आत्मा ज्ञेयपने जानने में आवे और सबसे पहले यही करने का है।।३७५।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ २७, पैराग्राफ १) १९२
* इन्द्रियज्ञान जिसको जाने उसको अपना मानता है*
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