________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है।।३५८ ।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३४, पैराग्राफ ३) * यहाँ कहते हैं कि यह जाननहार... जाननहार... जाननहार-यह जो जानन क्रिया के द्वारा जानने में आता है वह मैं हूँ-ऐसे अन्दर में न जाकर-ज्ञान में प्रतिभासता है जो राग उसके वश होकर राग वो मैं हूँ-ऐसा अज्ञानी ने माना है। इसलिए इस अनुभूति में जानने में आता है वो ज्ञायक मैं हूँ-ऐसा आत्मज्ञान उदय को प्राप्त नहीं होता।।३५९ ।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३५, पैराग्राफ ३)
* में ज्ञायक हूँ। यह जाननहार है वही जानने में आता है। जानने में आता है वह ज्ञायक वस्तु है-ऐसा ज्ञान नहीं होने पर जानने की पर्याय में जो अचेतन राग प्रतिभासता है वही मैं हूँ-ऐसा मानता है। दया, दान, भक्ति का विकल्प है वह जड़ है उसका ज्ञान में प्रतिभास होने पर यह मैं हूँ ऐसा मानने वाले को-इनसे रहित मैं आत्मा हूँ-ऐसा ज्ञान प्रकट नहीं होता। और इस आत्मज्ञान के अभाव में नहीं जाने हुए का श्रद्धान गधे के सींग के समान होता है। जैसे मानो कि 'गधे के सींग' परन्तु जहाँ गधे के सींग होते ही नहीं हैं तो किस प्रकार माने जायें ? इसी प्रकार भगवान आत्मा जानने की पर्याय में जानने में आता है वह में हूँ-ऐसा नहीं मानकर राग में हूँ ऐसा मानता है उसे आत्मा का ज्ञान नहीं है। और इस आत्मा का ज्ञान नहीं होने से उसकी श्रद्धा भी ‘गधे के सींग' के समान है।।३६०।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३६, पैराग्राफ २)
१८६
* इन्द्रियज्ञान स्व और पर को जानने का साधन नहीं है
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com