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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है शरीर को, राग को, जानने पर भी जाननहार ही जानने में आता हैलेकिन यह अनुभूतिस्वरूप आत्मा मैं हूँ, यह जाननहार वह तो मैं ही हूँ, ऐसा अज्ञानी को (विश्वास) नहीं होता हुआ-बंध के वश पड़ा है। आत्मा के वश होना चाहिए उसके बदले कर्म के वश हो गया है।।३५६ ।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८ , पृष्ठ ३३, पैराग्राफ ४) * इस प्रकार परपदार्थ और रागादि उनको अपने मानता है, परन्तु राग से भिन्न अनुभवरूप अपनी चीज जुदी है ऐसा भान नहीं होने से यह जाननहार जानने में आता हैं, वो मैं ही हूँ ऐसा नहीं मानता है।।३५७।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८ , पृष्ठ ३४, पैराग्राफ १) * भगवान आत्मा ज्ञायक ज्योति ध्रुव वस्तु है यह तो ज्ञायक स्वभाव रूप से परमपारिणामिक भाव रूप से स्वभाव भावरूप से ही त्रिकाल है। राग के साथ द्रव्य एकरूप नहीं हुआ है; परन्तु जाननहार जिसमें जानने में आता है वह ज्ञान पर्याय लम्बाकार अन्दर में जाती नहीं है। जाननहार सदा ही स्वयं जानने में आ रहा है-ऐसी ज्ञान की पर्याय प्रकट होने पर भी यह अन्दर जाननहार वह मैं हूँ अर्थात् इस ज्ञान की पर्याय में जानने में आता है (जानने में आ रहा है) वो मैं हूँ-इस प्रकार अन्दर में न जाकर, कर्म के राग के वश पड़ा हुआ बाहर में जो राग दिखता है वो मैं हूँ-ऐसा मानता है। आहा! आचार्य देव ने सादी भाषा में मूल बात रख दी है। त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर और गणधरों की वाणी की गम्भीरता की क्या बात !!! पंचम काल के संतो ने इतने में तो सम्यकदर्शन प्राप्त करने की कला और मिथ्यादर्शन कैसे प्रकट हो जाता है, उसकी बात की १८५ * इन्द्रियज्ञान का लक्ष पर के ऊपर होता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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