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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* जो यह ज्ञान की पर्याय है, इसमें राग नहीं होने पर भी इसमें राग है ऐसा जिसने जाना और माना है तथा जो पर्याय ज्ञायक की है उसमें जो यह ज्ञायक जानने में आता है वह मैं हूँ ऐसा जानने के बदले जानने की पर्याय में जो राग प्रतिभासता है वह मैं हूँ ऐसा मानने वाला आत्मज्ञान बिना का मिथ्यादृष्टि है।।३६१।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८, पृष्ठ ३६, पैराग्राफ २ )
* यहाँ कहते हैं कि जानने की पर्याय में जो जाननहार जानने में आता है वह मैं हूँ ऐसा अन्दर में जाने के बदले बाहर में जो परज्ञेयरूप राग प्रतिभासता है वह मैं हूँ इस प्रकार वश में होते हुए उस अज्ञानी मूढ़ जीव को आत्मज्ञान नहीं होता। इसलिए आत्मा को जाने बिना श्रद्धान किस प्रकार हो सकता है ? जो वस्तु ही ख्याल में नहीं आई है उसको (यह आत्मा इस प्रकार है ) तो मानने में किस प्रकार आवे ? भाई! यह तो संसार का नाश कैसे होवे - उसकी बात है । अहो ! यह समयसार अद्वितीय चक्षु है, अजोड़ आँख है। भरत क्षेत्र की केवलज्ञान की आँख है। जगत् का भाग्य है कि यह समयसार रह गया । । ३६२ ।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८, पृष्ठ ३६, पैराग्राफ ५)
* यह जाननहार जानने में आता है ( जाणनारो जणाय छे) ऐसे आत्मज्ञान के अभाव के कारण यह जाननहार ज्ञायक है वही मैं हूँ ऐसा श्रद्धान भी उदित नहीं होता है । उसको सम्यक्त्व भी नहीं होता है। राग में एकत्व बुद्धि के कारण नहीं जाने हुए भगवान ज्ञायक स्वरूप आत्मा का उसको श्रद्धान–सम्यक्दर्शन नहीं होता है । तब समस्त अन्य भावों के भेद से (भिन्नता से) आत्मा में निशंक स्थिर होने में असमर्थ है। राग से
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'इन्द्रियज्ञान वह आत्मा को जानने का साधन नहीं है*
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