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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है दे। अहाहा...! पर को देखने का बन्द कर दे यह बात तो एक तरफ रही (-वो बात है ही नहीं ) क्योंकि स्वयं के सिवाय दूसरे जो पदार्थ हैं चाहे फिर वह तीन लोक के नाथ भगवान हों तो भी, उसको देखनेवाली जो दृष्टि है वह कोई पर्यायार्थिक दृष्टि या द्रव्यार्थिक दृष्टि नहीं है। मात्र अपने में दो प्रकार हैं। एक सामान्यपना - कायम रहने वाला और दूसरा - विशेषपना - पलटने वाला; और उसको देखने वाली दो आँखें हैं। अब उस विशेष को देखनेवाली आँख को बिल्कुल (सर्वथा) बंद करके, खोली हुई द्रव्यार्थिक आँख के द्वारा देख, ऐसा कहते हैं। बहुत गजब बात है । थोड़े शब्दों में बहुत भरा है । अहो ! बहुत ऊँची बात है ।। ३३५ ।। (गुजराती अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ १३५ में से ) 66 * यहाँ कहते हैं कि जब आत्मा को हमने ज्ञायक कहा- और वह ज्ञायक ज्ञायकपने जानने में आया तब - जाननहार को तो जाना लेकिन अब वह जाननहार है " ऐसा कहने में आता है तो वह पर को भी जानता है ऐसा इसमें आया ने ? भाई ! वह पर को जानता है ऐसा भले कहने में आवे तो भी वास्तव में तो जो पर है उसको वह जानता हैऐसा नहीं है। अर्थात् पर है, रागादि होता है-उसको जो जानता है वो रागादि के कारण से जानता है - ऐसा नहीं है । परन्तु इस ज्ञान की पर्याय का स्व-परप्रकाशक सामर्थ्य ही ऐसा है कि स्वयं स्वयं को जानता है। अर्थात् ज्ञायक (जाननहार पर्याय ) ज्ञायक को (जाननहार पर्याय को ) जानता है। यहाँ पर्याय की बात है। हों। क्योंकि द्रव्य को तो वह जानता ही है । अहा ! गजब बात है । । ३३६ ।। I (श्री ज्ञायकभाव पुस्तक में से पृष्ठ ४९ ) * वस्तुस्वरूप चिदानंद प्रभु आत्मा ज्ञायकपने तो जानने में आया, लक्ष में आया दृष्टि में आया परन्तु उसे जाननेवाला - स्वपर प्रकाशक कहते १७५ परसन्मुख हुआ ज्ञान जड़ है, अचेतन है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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